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________________ ३१८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त उनका भी हिंसक है क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है।९ इस प्रकार आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान् पाप रूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में लिखते हैं कि बाहर में प्राणी मरे या जीये अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर में हिंसा निश्चित है। परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, संयताचारी है उसको बाहर से होने वाली हिंसा से कर्म-बन्ध नहीं है।" आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से मुक्त नियमपूर्वक आचारण करते हुए भी यदि प्राणाघात हो जावे तो वह हिंसा हिंसा नहीं है। निशीथ चूर्णि में भी कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है।४३ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक रहा है। जैन आचार्यों के इस दृष्टिकोण के पीछे जो प्रमुख विचार है, वह यह है कि व्यवहारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और जीवन में सद्गुण के विकास की दृष्टि से जीवन को बनाए रखने का प्रयास ये दो ऐसी स्थितियां हैं जिनको साथ-साथ चलाना संभव नहीं होता है, अत: जैन विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से है। इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है-जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी मारता नहीं है और वह [ अपने कर्मों के कारण ] बन्धन में नहीं पड़ता।४५ धम्मपद में भी कहा गया है 'वीततृष्ण व्यक्ति ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एव प्रजा-सहित राष्ट्र को मार कर भी निष्पाप होकर जीता है क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है'४६। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा और अहिंसा की विवेचना के मूल में प्रमाद या रागादि भाव ही प्रमुख तथ्य हैं। सन्दर्भ : १. अहिंसाए भगवतीए-एसा सा भगवती अहिंसा।-प्रश्नव्याकरणसूत्र २/१/२१-२२। जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णविंति एवं परुविंति-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधित्तव्वा; न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णाहिं पवेइए। -आचारांग, (सं० आत्मारामजी, जैन स्थानक लुधियाना, १९६४) ४/१२७॥ ३. एवं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसइ किंचनं। __ अहिंसा समय चेव एतांवतं वियाणिया। -सूत्रकृताङ्ग १/४/१० तत्थिमं पढ़मं ठाणं महावीरेण देसियं। अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूए सुसंजमो। -दशवैकालिक, ६/९। ५. धम्ममहिंसा समं नत्थि। भक्तपरिज्ञा ९। अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४२॥ ७. सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्व सत्थाणं-भगवती आराधना,९० ८. धर्म समासतोऽहिंसा वर्णयन्ति तथागता -चतुःशतक ९. न तेन अरिया होति येन पाणानि हिंसति। अहिंसा सव्वपाणानं, अरियो ति पवुच्चाति। -धम्मपद २७० १०. जयवेरं पसवति दुःख सेति पराजितो उपसन्तो सुखं सेति जयपराजयो॥-धम्मपद २०१। ११. अंगुतरनिकाय, तीसरा निपात १५३ १२. गीता १०/५-७, १६/२, ७/१४ १३. एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते। -महाभारत,शान्तिपर्व, गीताप्रेस, गोरखपुर, २४५/१९ १४. अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। यः स्यादहिंसासम्पृक्तः स धर्म इति निश्चयः। -महाभारत,शान्तिपर्व १०९/१२। १५. न हि अत्र युद्धः कर्तव्यो विधीयते। -गीता, शांकरभाष्य २/१८ । १६. गीता, शांकरभाष्य ६/३२ १७. दी भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ल्ड, पृष्ठ १२२ १८. भगवद्गीता-राधाकृष्णन्। -पृष्ठ ७४-७५ १९. Hidnu Ethics २०. सव्वे जीवा वि इच्छति जीविउं न मरिज्जिउं तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं-दसवैकालिक ६/११ २१. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणेपियायए। ण हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए।। उत्तरा ६/७ २२. जे लोगं अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति। -आचारांग १३/३। २३. तुमंसि नाम तं चेव जं हन्तव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वति मन्नसि, तुमंसि नाम त चेव जं परियावेयव्वति मन्त्रसि। -आचारांग १/५-४ २४. जीववहो अप्पवहो जीवदया अप्पणो दया होई। भक्तपरिज्ञा ९३ २५. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये।। -सुत्तनिपात ३/३७/२७ २६. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृष्ठ १२५। २७. प्रश्न व्याकरणसूत्र, २/२१ । २८. हिंसाए पडिवक्खो होई अहिंसा -दशवैकालिक,नियुक्ति ६० २९. आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छयो एसो। जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ इयरो।। ओघनियुक्ति ७५४ ३०. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं चउच्छ्वासनिश्वासमथान्यदायुः। प्राणा: दशैतेभगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा।। - अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ७, पृष्ठ १२२८। ३१. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। -पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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