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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ३१६ " २७. लब्धि, २८. विशेष दृष्टि २९. कल्याण, ३०, मंगल, ३१. प्रमोद ३२. विभूति, ३३. रक्षा, ३४ सिद्धावास, ३५. अनास्रव, ३६. कैवल्यस्थान, ३७. शिव, ३८. समिति, ३९. शील, ४०. संयम, ४१. शील- परिग्रह, ४२. संवर, ४३. गुप्ति, ४४ व्यवसाय, ४५. उत्सव, ४६. यज्ञ, ४७. आयतन, ४८ यतन, ४९. अप्रमाद, ५०. आश्वासन, ५१. विश्वास, ५२. अभय, ५३. सर्व अनाघात (किसी को न मारना) ५४. चोक्ष (स्वच्छ) ५५. पवित्र, ५६. शुचि, ५७: पूता, ५८. विमला, ५९. प्रभात और ६०. निर्मलतर । इस प्रकार जैन आचार दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थित होता है, उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा के ही विभिन्न रूप हैं और अहिंसा ही एकमात्र सगुण है। अहिंसा क्या है? हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है, २८ यह अहिंसा की निषेधात्मक परिभाषा है। लेकिन मात्र हिंसा का छोड़ना अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती। वह एक आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य बनकर रह जाती है, जबकि आध्यात्मिकता तो आन्तरिक होती है। हिंसा नहीं करना यह अहिंसा का शरीर हो सकता है अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना, यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैन विचारणा अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है। जैन आचार दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व अहिंसा शाब्दिक रूप में यद्यपि नकरात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। सर्व के प्रति आत्मभाव, करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से ही अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। हिंसा नहीं करना, यही मात्र अहिंसा नहीं है अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है, वह हमारी आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था ही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु ओघनियुक्ति में लिखते हैं— पारमार्थिक दृष्टिकोण से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है; प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा ही अहिंसा है। २९ द्रव्य एवं भाव हिंसा अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन विचारणा हिंसा के दो पक्षों पर विचार करती है, एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा के सम्बन्ध में एक स्थूल एवं बाह्य दृष्टिकोण है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैन विचारणा आत्मा को अपेक्षाकृत रूप से नित्य मानती है। अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है वह आत्मा नहीं, वरन् 'प्राण' है— प्राण जैविक शक्ति है। जैन विचारणा में प्राण दस माने गये हैं। पांच इन्द्रियों की पाँच शक्तियां, Jain Education International मन, वाणी और शरीर इन का विविध बल तथा श्वसन क्रिया एवं आयुष्य, ये दस प्राण हैं और इन प्राण-शक्तियों के वियोजीकरण को ही द्रव्य दृष्टि से हिंसा कहा जाता है।" यह हिंसा की द्रव्य दृष्टि से की गई परिभाषा है। जो कि हिंसा के बाह्य पक्ष पर बल देती है। भाव हिंसा हिंसक विचार है, जबकि द्रव्य-हिंसा हिंसक कर्म है। , भाव-हिंसा मानसिक अवस्था है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भावानात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा की है। उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। " हिंसा की एक पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थ सूत्र में मिलती है। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार राग, द्वेष, अविवेक आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है। स हिंसा के प्रकार जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव इन दो आधारों पर हिंसा के चार विभाग किये है- १. मात्र शारीरिक हिंसा २ मात्र वैचारिक हिंसा ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा और ४ शाब्दिक हिंसा मात्र शारीरिक हिंसा - यह ऐसी द्रव्य हिंसा है, जिसमें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो लेकिन हिंसा के विचार का अभाव हो। उदाहरणार्थ सावधानी पूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या सूक्ष्म जन्तु के नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना मात्र वैचारिक हिंसा यह भाव हिंसा है इसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित होते है लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थिती होता है । अर्थात् कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है लेकिन बाह्य परिस्थिति वश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है। जैसे कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार (परम्परागत दृष्टि के अनुसार तंदुलमच्छ एवं कालकौसरिक कसाई के उदाहरण इसके लिए दिये जाते हैं) । वैचारिक एवं शारीरिक हिंसा - जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया दोनों ही उपस्थित हों जैसे संकल्प पूर्वक की गई हत्या । शाब्दिक हिंसा - जिसमें न तो हिंसा का विचार हो और न हिंसा की क्रिया, मात्र हिंसक शब्दों का उच्चारण हो, जैसे सुधार - भावना की दृष्टि से माता-पिता का बालकों पर या गुरु का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना। २ नैतिकता या बंधन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमश: शाब्दिक हिंसा की अपेक्षा संकल्परहित मात्र शारीरिक हिंसा, संकल्परहित शारीरिक हिंसा की अपेक्षा मात्र वैचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प युक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गई है। - हिंसा की विभिन्न स्थितियाँ वस्तुतः हिंसा की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं- १. हिंसा की गई हो, २. हिंसा करना पड़ी हो और ३. हिंसा हो गई हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई हो तो वह संकल्प युक्त है और यदि अचेतन रूप से की गई हो तो वह प्रमाद युक्त है। हिंसक क्रिया चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई वहाँ या प्रमाद के कारण हुई हो कर्ता दोषी है। दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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