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________________ अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन जैनदर्शन में अहिंसा का स्थान बुद्ध हिंसा एव युद्ध के नीतिशास्त्र के तीव्र विरोधी हैं, धम्मपद अहिंसा जैनदर्शन का प्राण है। जैनदर्शन में अहिंसा वह धुरी में कहा गया है कि विजय से वैर उत्पन्न होता है, पराजित दुःखी है जिस पर समग्र जैन आचार-विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा होता है जो जय पराजय को छोड़ चुका है उसे ही सुख है, उसे ही भगवती है। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं- शांति है। 'भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध इस बात को अधिक स्पष्ट कर देते हैं जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को कि हिंसक व्यक्ति इसी जगत में नारकीय जीवन का सृजन कर लेता जैसे ओषधि और वन में जैसे सार्थवाह का साथ, आधारभूत है वैसे है जबकि अहिंसक व्यक्ति इसी जगत् में स्वर्गीय जीवन का सृजन ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर कर लेता है। वे कहते हैं- 'भिक्षुओ, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वही मात्र एक ऐसा शाश्वत होता है जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो। कौन से तीन? धर्म है, जिसका जैन तीर्थंकर उपदेश करते हैं। आचशंगसूत्र में कहा 'स्वयं प्राणी-हिंसा से विरक्त रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर गया है-भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यही उपदेश करते नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करता। हैं कि सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों को महायान सम्प्रदाय में करुणा और मैत्री की भावना का जो चरम किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दु:ख नहीं देना चाहिए और न उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है, रहा हुआ है। जिसका समस्त लोक के दुःख को जानकर अर्हतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह हिन्दू दर्शन और गीता में अहिंसा का स्थान है कि हिंसा न करें, अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का स्मरण रखना चाहिए। दशवकालिक सूत्र में कहा गया है कि सभी ही भाव कहा गया है, उसको देवी-सम्पदा एवं सात्विक तप बताया प्राणियों के प्रति संयम में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर है।१२ महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी ने इसको 'प्रथम स्थान पर कहा है। भक्तपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में कहा धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। १३ मात्र यही नहीं उसमें भी गया है कि अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। धर्म के उपदेश का उद्देश्य प्राणियों को हिंसा से विरत करना माना आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का गया है। 'अहिंसा ही धर्म का सार है' इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। के लेखक का कथन है-"प्राणियों की हिंसा न हो इसलिए धर्म का सभी नैतिक नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत हैं; आचार के नियमों उपदेश दिया गया है अत: जो अहिंसा से युक्त है वही धर्म है"१४ के दूसरे रूप जैसे असत्यभाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में तो बार-बार अर्जुन तो जनसाधारण को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों को युद्ध करने का निर्देश दिया गया है, उसका युद्ध से विमुख होना से कहे जाते हैं। वस्तुत: वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष है। निन्दनीय एवं कायरतापूर्ण माना गया है। फिर गीता को अहिंसा की जैन आचार-दर्शन में अहिंसा वह आधार-वाक्य है जिससे आचार के विचारणा की समर्थक कैसे माना जाए? इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर सभी नियम निर्गमित होते हैं। भगवती-आराधना में कहा गया है कि से कुछ कहूँ; इसके पहले हमें गीता के व्याख्याकारों की दृष्टि से ही अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति इसका समाधान पा लेने का प्रयास करना चाहिये। गीता के आद्य स्थान) है। टीकाकार आचार्य शंकर 'युद्धस्व' (युद्धकर) शब्द की टीका में लिखते हैं कि यहाँ युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है।५ मात्र यही नहीं बौद्ध आचार-दर्शन में अहिंसा का स्थान आचार्य गीता के 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' के अधार पर गीता में अहिंसा बौद्ध दर्शन के दस शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है। चतु:शतक के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं"। जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही में कहा गया है- तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय एवं में धर्म का वर्णन किया है। धम्मपद में बुद्ध ने हिंसा को अनार्य प्रतिकूल हैं वैसे सब प्राणियों को भी दुःख अप्रिय व प्रतिकूल है। कर्म कहा है। वे कहते हैं जो प्राणियों की हिंसा करता है वह आर्य इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आर्य कहा जाता है। आचरण नहीं करता वह अहिंसक है। ऐसा अहिंसक पुरुष पूर्णज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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