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________________ अपने वैचारिक साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं। जैन आचार दर्शन अपने अनेकान्तवाद और अनाग्रह के सिद्धांत के आधार पर इन वैचारिक संघर्षो का निराकरण प्रस्तुत करता है। अनेकांत का सिद्धांत वैचारिक आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्त्व देता है, जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता - Jain Education International उपर्युक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं जैन आचार दर्शन उपर्युक्त तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार दर्शन में तीन सिद्धांत प्रस्तुत करता है। सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिये उसने अहिंसा एवं सामाजिक समता का सिद्धांत प्रस्तुत किया हैं। आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए उसने परिग्रह एवं उपभोग के परिसीमन का सिद्धांत प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार बौद्धिक एवं वैचारिक संघर्षो के निराकरण के लिए अनाग्रह और अनेकांत के सिद्धांत प्रस्तुत किये गये हैं। ये सिद्धांत क्रमशः सामाजिक समता, आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना करते हैं। लेकिन ये सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत् ही है। जैन आचार दर्शन मानसिक तनावों एवं विक्षोभों के निराकरण के लिये भी विशेष रूप से विचार करता है क्योंकि यदि व्यक्ति का मानस विक्षोभ एवं तनावयुक्त है तो सामाजिक जीवन भी अशांत होगा । - ४. मानसिक वैषम्य – मानसिक वैषम्य मनोजगत् में तनाव की अवस्था का सूचक है। जैन आचार दर्शन ने राग-द्वेष एवं चतुर्विध कषायों को मनोजगत् के वैषम्य का मूल कारण माना है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों आवेग या कषाय हमारे मानसिक समत्व को भंग करते है। यदि हम व्यक्तिगत जीवन के विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हम उनके मूल में कही न कहीं जैन दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नौ कषायों (आवेगों और उप- आवेगों) की उपस्थिति ही पाते हैं। जैन आचार दर्शन कषाय-त्याग के रूप में हमें मनोजगत् के तनावों के निराकरण का संदेश देता है। वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय लाभ करते हुए आगे बढ़ेगे वैसे ही हमें व्यक्तित्व की पूर्णता का प्रकटन भी होगा जैन दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गई हैं, जो इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती हैं। इनके प्रथम तीव्रतम रूप पर विजय पाने पर साधक में सम्यक दृष्टिकोण का उद्भव होता है। द्वितीय मध्यम रूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावक या गृहस्थ-उपासक की श्रेणी में जाता है। तृतीय रूप पर विजय करने " पर वह श्रमणत्व का लाभ करता है और उनके सम्पूर्ण विजय पर वह आत्मपूर्णता को प्रकट कर लेता है। कषायों को पूर्ण समाप्ति पर एक पूर्ण व्यक्तित्व का प्रकटन हो जाता है। इस प्रकार जैन आचार दर्शन राग-द्वेष एवं कषाय के रूप में हमारे मानसिक तनावों का कारण प्रस्तुत करता है और कषाय-जय के रूप में मानसिक समता के निर्माण की धारणा को स्थापित करता है। प्रत्येक व्यक्ति यह अपेक्षा करता है कि उसका जीवन शान्त एवं ३०५ सुखी हो लेकिन मानव मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषाय चतुष्क-जनित हैं। अतः शान्त और सुखी जीवन के लिये मानसिक तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है। क्रोधादि कषायों पर विजय लाभ करके समत्व के सृजन के लिये हमें मनोवेगों से ऊपर उठना होगा। जैसे-जैसे हम मनोवेगों या कषाय चतुष्क से ऊपर उठेंगे वैसे-वैसे सच्ची शान्ति का लाभ प्राप्त करेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन सामाजिक जीवन से विषमताओं के निराकरण और समत्व के सृजन के लिए एक ऐसी आचार विधि प्रस्तुत करता है जिसके सम्यक् परिपालन से सामाजिक और वैयक्तिक दोनों ही जीवन में सच्ची शान्ति और वास्तविक सुख का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उसने सामाजिक जीवन में सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर अधिक बल दिया है। यही कारण है कि उसके द्वारा प्रस्तुत सामाजिक आदेश अपनी प्रकृति में निषेधात्मक अधिक प्रतीत होते हैं यद्यपि विधायक सामाजिक आदेशों का उसमें पूर्ण अभाव नहीं है। उसके कुछ प्रमुख सामाजिक आदेश निम्न हैं निष्ठा सूत्र १. सभी आत्मायें स्वरूपतः समान हैं, अतः सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच के वर्गभेद या वर्णभेद खड़े मत करो। २. सभी आत्मायें समान रूप से सुखाभिलाषी हैं, अतः दूसरे के हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी को नहीं है। सभी के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा तुम उनसे स्वयं के प्रति चाहते हो । ३. संसार में प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखो, किसी से भी घृणा एवं विद्वेष मत रखो | ४. गुणीजनों के प्रति आदर भाव और दुष्टजनों के प्रति उपेक्षा भाव रखो। ५. संसार में जो दुःखी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और वात्सल्य भाव रखो और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा और सहयोग प्रदान करो। व्यवहार सूत्र १. किसी निर्दोष प्राणी को बन्दी मत बनाओ अर्थात् सामान्यजनों की स्वतंत्रता में बाधक मत बनो । २. किसी का वध या अंगभेद मत करो, किसी से भी मर्यादा से अधिक काम मत लो। ३. किसी की आजीविका में बाधक मत बनो । ४. पारस्परिक विश्वास को भंग मत करो न तो किसी की अमानत हड़पो और न तो किसी के रहस्यों को प्रकट करो। ५. सामाजिक जीवन में गलत सलाह मत दो, अफवाह मत फैलाओ और दूसरों के चरित्र हनन का प्रयास मत करो। ६. अपने स्वार्थ की सिद्धि के हेतु असत्य घोषणा मत करो। न तो स्वयं चोरी करो, न चोर को सहयोग दो, चोरी का माल ७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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