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________________ जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता सर्वहित और लोकहित के सन्दर्भ में जैन-दृष्टि साधना मार्ग में आता है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त यद्यपि जैन दर्शन में आत्मकल्याण और वैयक्तिक मुक्ति को कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। किन्तु इस आधार पर भी उसे और सर्वलोक का कल्याण ही उसके जीवन का ध्येय बन जाता हैं। असामाजिक नहीं कहा जा सकता है। जिस करुणा और लोकहित की २. गणधर-सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना-क्षेत्र अनुपम भावना से अर्हत्-प्रवचन का प्रस्फुटन होता है, उसे नहीं झुठलाया में प्रविष्टि पानेवाले और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने जा सकता है। के पश्चात् भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिये प्रयत्नशील जैनाचार्य समन्तभद्र जिन-स्तुति करते हुए कहते हैं-भगवन! रहनेवाले साधक गणधर कहलाते हैं। समूह-हित या गण-कल्याण गणधर आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के सर्व दुःखों का के जीवन का ध्येय होता है।११। अन्त करनेवाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे ३. सामान्य केवली-अत्मकल्याण को ही जिसने अपनी साधना बढ़कर लोक-आदर्श और लोकमंगल की कामना क्या हो सकती है? का ध्येय बनाया है और जो इसी आधार पर साधना मार्ग में प्रवृत्त प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है- भगवान् का यह सुकथित होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह सामान्य प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिये है। केवली कहलाता है। १२ । जैन-साधना लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। उसी साधारण रूप में विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और वैयक्तिक-कल्याण सूत्र में आगे यह भी बताया गया है कि जैन साधना के पाँचों महाव्रत की भावानओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों सर्वप्रकार से लोकहित के लिये ही हैं।६ अहिंसा-विवेचना करते हुए की ये कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं। जिनमें विश्वकल्याण के लिए प्रवृत्ति कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती अहिंसा प्राणियों प्रकार बौद्ध विचारणा में बोधिसत्व और अर्हत के आदर्शों में भिन्नता के लिये निर्बाध रूप से हितकारिणी है। यह प्यासों को पानी के समान, है, उसी प्रकार जैन साधना में तीर्थंकर और सामान्य केवली के आदर्शों भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के में तारतम्य है। लिए ओषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है': इन सबके अतिरिक्त जैन साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि तीर्थङ्कर नमस्कारसूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का विशेष परिस्थितियों में तो संघ के कल्याण के लिये वैयक्तिक साधना प्रयोग हुआ है वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। जैन साहित्य में आचार्य करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह भद्रबाहु एवं कालक की कथा इसका उदाहरण है।१३।। के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि ऐसा माना स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों) का निर्देश दिया गया जाय कि जैन साधना केवल आत्महित या आत्म-कल्याण की बात है, उनमें संघधर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन या संघ-संचालन का की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन दृष्टि न केवल कोई अर्थ ही नहीं रह जाता; क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता है। अतः या लोक-कल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है। मानना पड़ेगा कि जैनसाधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, यद्यपि जैनाचारदर्शन लोकहित, लोकमगल की बात कहता है, वरन् लोककल्याण भी है। लेकिन उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिये स्वार्थ का विसर्जन जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित की श्रेष्ठता किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार वैयक्तिक को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन विचारणा के अनुसार साधना की भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिये समर्पित किया जा सकता सर्वोच्च उँचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली से यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी हैं वे वस्तुत: संसार की हैं, हमारी नहीं, सांसारिक उपलब्धियाँ संसार "आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिये विसर्जन किया जाना चाहिए। में रखकर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया है। एक सामान्य लेकिन उसे यह स्वीकार नहीं है कि आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ तो समान नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जाये। ऐसा लोकहित, ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर को उसकी लोकहित की दृष्टि के कारण जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक कुंठन से फलित होता सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। जीवन्मुक्तावस्था को हो, उसे स्वीकार नहीं है। लोकहित और आत्महित के संदर्भ में उसका प्राप्त कर लेने वाले व्यक्तियों के, उनकी लाकोपकारिता के आधार स्वर्णिम सूत्र है 'आत्महित करो और यथाशक्ति लोकहित भी करो, लेकिन पर, तीन वर्ग होते हैं- १.तीर्थंकर, २. गणधर और ३. सामान्य केवली। जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुंठन १. तीर्थंकर-तीर्थकर वह है जो सर्वहित के संकल्प को लेकर पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहाँ आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है। १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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