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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न २९१ कहलाते थे। हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि वस्त्र का ग्रहण एक मनोदैहिक २. एक वस्त्रधारी भी दो प्रकार के होते थे एवं सामाजिक आवश्यकता है और उससे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों (अ) कुछ एक वस्त्रधारी रहते तो अचेल ही थे, किन्तु अपने ही परम्पराएँ प्रभावित हुई हैं। दिगम्बर परम्परा में ऐलक और क्षुल्लक पास एक ऊनी वस्त्र रखते थे, जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश के की व्यवस्था तो इस आवश्यकता की सूचक है ही, किन्तु इसके साथ समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और सर्दियों की रात्रियों में ही साथ उनमें जो सवस्त्र भट्टारकों की परम्परा का विकास हुआ, उसके शीत-निवारण के लिये करते थे। ये स्थविरकल्पी कहलाते थे। पीछे भी उपरोक्त मनोदैहिक कारण और लौकिक परिस्थितियाँ ही मुख्य (ब) कुछ एक वस्त्रधारी मात्र अधोवस्त्र धारण करते थे, जैसे रहीं। क्या कारण था कि अचेलता की समर्थक इस परम्परा में भी वर्तमान में दिगम्बर परम्परा के ऐलक धारण करते हैं। ऐलक एक- लगभग १००० वर्षों तक नग्न मुनियों का अभाव रहा। आज दिगम्बर चेलक (वस्त्रधारी) का ही अपभ्रंश रूप है। इसे आगम में एकशाटक परम्परा में शान्तिसागरजी से जो नग्न मुनियों की परम्परा पुनः जीवित कहा गया है। हुई है, उसका इतिहास तो. १०० वर्ष से अधिक का नहीं है। लगभग . ३. दो वस्त्रधारी, जिन्हें सान्तरोत्तर भी कहा गया है, एक अधोवस्त्र ग्यारहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक दिगम्बर मुनियों का प्रायः अभाव व एक उत्तरीयवस्त्र रखते थे, जैसे वर्तमान में क्षुल्लक रखते हैं- ही रहा है। अधोवस्त्र लोक-लज्जा हेतु और उत्तरीय शीत-निवारण हेतु।। आज इन दोनों परम्पराओं में सचेलता और अचेलता के प्रश्न ४. तीन वस्त्रधारी साधु अधोवस्त्र और उत्तरीय के साथ-साथ पर जो इतना विवाद खड़ा कर दिया गया है, वह दोनों की आगमिक शीत-निवारणार्थ एक ऊनी कम्बल भी रखते होंगे। यह व्यवस्था आज व्यवस्थाओं और जीवित परम्पराओं के सन्दर्भ में ईमानदारी से विचार के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं में है। करने पर नगण्य ही रह जाता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने आचारांग स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करता है कि वस्त्रधारी मुनि मताग्रहों से न तो आगमिक व्यवस्थाओं को देखने का प्रयत्न करते वस्त्र के जीर्ण होने पर एवं ग्रीष्मकाल के आगमन पर जीर्ण वस्त्रों का है और न उन कारणों का विचार करते हैं, जिनसे किसी आचार-व्यवस्था त्याग करते हुए अचेलता की दिशा में आगे बढ़े। तीन वस्त्रधारी क्रमशः में परिवर्तन होता है। दुर्भाग्य है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा ने जिनकल्प अपने परिग्रह को कम करते हुए सान्तरोत्तर अथवा एक शाटक अथवा के विच्छेद के नाम पर उस अचेलता का अपलाप किया, जो उसके अचेल हो गए। हम देखते हैं कि आचारांग में वर्णित वस्त्र-सम्बन्धी पूर्वज आचार्यों के द्वारा लगभग ईसा की दूसरी शती तक आचरित यह व्यवस्था अचेलता का अति-आग्रह रखने वाली दिगम्बर परम्परा रही और जिसके सन्दर्भ उनके आगमों में आज भी हैं। वहीं दूसरी में भी मुनि, ऐलक और क्षुल्लक के रूप में आज भी प्रचलित है। ओर दिगम्बर परम्परा में सचेल मुनि ही नहीं होता है, यह कहकर उसका क्षुल्लक आचारांग का सान्तरोत्तर है, ऐलक एकशाटक तथा न केवल महावीर की मूल-भूत अनेकान्तिक दृष्टि का उल्लंघन किया मुनि अचेल है। गया, अपितु अपने ही आगमों और प्रचलित व्यवस्थाओं को नकार श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती काल में भी जो वस्त्र-पात्र का विकास दिया गया। हम पूछते हैं कि क्या ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ हैं और हुआ और वस्त्र-ग्रहण को अपरिहार्य माना गया उसके पीछे मूल में यदि ऐसा माना जाय तो इनके मूल अर्थ का ही अपलाप होगा। परिग्रह या संचय वृत्ति न होकर देशकालगत परिस्थितियाँ, संघीय जीवन यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल की आवश्यकताएँ एवं संयम अर्थात् अहिंसा की परिपालना ही प्रमुख से ही क्षुल्लकों (युवा-मुनि) और स्थविरों (वृद्ध-मुनियों) के लिये थी। निर्ग्रन्थ संघ में जब अपरिग्रह महाव्रत के स्थान पर अहिंसा के वस्त्र-ग्रहण की परम्परा मान्य रही है। क्षुल्लक लोक-लज्जा के लिये महाव्रत की परिपालना पर अधिक बल दिया गया तो प्रतिलेखन या और स्थविर (वृद्ध) दैहिक आवश्यकता के लिये वस्त्र-ग्रहण करता पिच्छी से लेकर क्रमश: अनेक उपकरण बढ़ गये। श्वेताम्बर परम्परा है। 'क्षुल्लक मुनि नहीं हैं' यह उद्घोष केवल एकान्तता का सूचक के मान्य कुछ परवर्ती आगमों में मुनि के जिन चौदह उपकरणों का है। 'क्षुल्लक' शब्द अपने आप में इस बात का सूचक है कि वह उल्लेख मिलता है उनमें अधिकांश पात्र-पोछन, पटल आदि के कारण प्रारम्भिक स्तर का मुनि है, गृहस्थ नहीं, क्योंकि 'क्षुल्लक' का अर्थ होने वाली जीव हिंसा से बचने के लिये ही है। ओघनिर्यक्ति (६९१) छोटा होता है। वह छोटा मुनि ही हो सकता है, गृहस्थ नहीं। प्राचीन स्पष्ट उल्लेख है कि जिनेन्द्र देव ने षट्काय जीवों के रक्षण के आगमों में वस्त्रधारी युवा मुनि के लिये ही 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग लिये ही पात्र-ग्रहण की अनुज्ञा दी है। हुआ है। आचारांग तथा अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो शारीरिक सुख-सुविधा और प्रदर्शन की दृष्टि से जो वस्त्रादि जाता है कि निर्ग्रन्थ संघ में या तो महावीर के जीवनकाल में या निर्वाण उपकरणों का विकास हुआ है वह बहुत ही परवर्ती घटना है और के कुछ ही समय पश्चात् सचेल-अचेल मुनियों की एक मिली-जुली प्राचीन स्तर के मान्य आगमों से समर्थित नहीं है और मुनि-आचार व्यवस्था हो गई थी। यह भी सम्भव है कि ऐसी दोहरी व्यवस्था मान्य का विकृत रूप ही है और यह विकार यति परम्परा के रूप में श्वेताम्बरों करने पर परस्पर आलोचना के स्वर भी मुखरित हुए होंगे। यही कारण और भट्टारक-परम्परा के रूप में दिगम्बरों, दोनों में आया है। है कि आचारांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया गया कि अचेल किन्तु जो लोग वस्त्र के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखते मुनि, एकशाटक, सान्तरोत्तर अथवा तीन वस्त्रधारी मुनि परस्पर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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