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________________ सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म २५५ है, जो पीड़ित और शोषित को अपना अधिकार दिलाती है और सामाजिक मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी केवल मन की मौज या मन की तरङ्ग न्याय की स्थापना करती है। वह सामाजिक न्याय और आर्थिक समता (Whim) पर निर्भर नहीं है। इन्हें पूरी तरह आत्मनिष्ठ (Subjective) की स्थापना को ही सदाचार का मानदण्ड स्वीकार करती है। अत: नहीं माना जा सकता, इनके पीछे एक वस्तुनिष्ठ आधार भी होता है। वह सदाचार और दुराचार की धारणा को अस्वीकार नहीं करती है। आज हमें उन आधारों का अन्वेषण करना होगा, जो हमारी पसन्दगी वह भौतिकवादी दर्शन, जो सामाजिक एवं साहचर्य के मूल्यों और नापसन्दगी को बनाते या प्रभावित करते हैं। वे कुछ आदर्श, सिद्धान्त का समर्थक है, नीति की मूल्यवत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। दृष्टियाँ या मूल्य-बोध हैं, जो हमारी पसन्दगी या नापसन्दगी को बनाते यदि हम मनुष्य को एक विवेकवान् सामाजिक प्राणी मानते हैं, तो हैं और जिनके आधार पर हमारी रुचियाँ सृजित होती हैं। मानवीय हमें नैतिक मूल्यों को अवश्य स्वीकार करना होगा। वस्तुतः नीति का रुचियाँ और मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी आकस्मिक एवं प्राकृतिक अर्थ है किन्हीं विवेकपूर्ण साध्यों की प्राप्ति के लिए वैयक्तिक और (Natural) नहीं हैं। जो तत्त्व इनको बनाते हैं, उनके नैतिक मूल्य सामाजिक जीवन में आचार और व्यवहार के किन्हीं ऐसे आदर्शों एवं या सदाचार की अवधारणाएँ भी है। ये पूर्णतया व्यक्ति और समाज मर्यादाओं की स्वीकृति, जिसके अभाव में मानव की मानवता और की रचना भी नहीं हैं, अपितु व्यक्ति के मूल्य-संस्थान के बोध से भी मानवीय समाज का अस्तित्व ही खतरे में होगा, यदि नीति की मूल्यवत्ता उत्पन्न होती हैं। वस्तुत: मूल्यों की सत्ता अनुभव की पूर्ववर्ती है, मनुष्य का या सदाचार की धारणा का निषेध कोई दृष्टि कर सकती है तो मूल्यों का द्रष्टा है, सृजक नहीं। अत: पसन्दगी की इस धारणा के वह मात्र पाशविक भोगवादी दृष्टि है, किन्तु यह दृष्टि मनुष्य को एक आधार पर स्वयं सदाचार की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता पशु से अधिक नहीं मानती है। यह सत्य है कि यदि मनुष्य मात्र है। दूसरे यदि हम औचित्य एवं अनौचित्य या सदाचार-दुराचार का पशु है तो नीति का, सदाचार का कोई अर्थ नहीं है, किन्तु क्या आज आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते हैं, तो यह भी ठीक नहीं है। मनुष्य का अवमूल्यन पशु के स्तर पर किया जा सकता है? क्या मेरे व्यक्तिगत स्वार्थों से सामाजिक हित क्यों श्रेष्ठ एवं वरेण्य हैं? मनुष्य निरा पशु है? यदि मनुष्य निरा पशु होता तो वह पूरी तरह इस प्रश्न का हमारे पास क्या उत्तर होगा? सामाजिक हितों की वरेण्यता प्राकृतिक नियमों से शासित होता और निश्चय ही उसके लिए सदाचार का उत्तर सदाचार के किसी शाश्वत मानदण्ड को स्वीकार किये बिना की कोई आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आज का मनुष्य पूर्णत: प्राकृतिक नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं नियमों से शासित नहीं है, वह तो प्राकृतिक नियमों एवं मर्यादाओं सदाचार की मूल्यवत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता। सदाचार की अवहेलना करता है। अत: पशु भी नहीं है। उसकी सामाजिकता के मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति में ही उनकी परिवर्तनशीलता का भी उसके स्वभाव से नि:सृत नहीं है, जैसी कि यूथचारी प्राणियों में कोई अर्थ हो सकता है, उनके नकारने में नहीं है। होता है। उसकी सामाजिकता उसके बुद्धितत्त्व का प्रतिफल है, वह यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज भी सदाचार विचार की देन है, स्वभाव की नहीं। यही कारण है कि वह समाज के किसी मानदण्ड का सृजक नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि का और सामाजिक मर्यादाओं का सर्जक भी है और संहारक भी है, सदाचार या दुराचार की धारणा समाज-सापेक्ष है। एक उर्दू शायर ने वह उन्हें स्वीकार भी करता है और उनकी अवहेलना भी करता है, कहा हैअत: वह समाज से ऊपर भी है। बेडले का कथन है कि यदि मनुष्य बजा कहे आलम उसे बजा समझो। सामाजिक नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, किन्तु यदि वह केवल जबानए खल्क को नक्कारए खुदा समझो।। सामाजिक है तो वह पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता अर्थात् जिसे समाज उचित कहता है उसे उचित और जिसे अनुचित उसके अति सामाजिक एवं नैतिक प्राणी होने में है। अतः मनुष्य के कहता है उसे अनुचित मानो क्योंकि समाज की आवाज ईश्वर की आवाज लिए सदाचार की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति असम्भव है। यदि हम है। सामान्यतया सामाजिक मानदण्डों को सदाचार का मानदण्ड मान परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं सदाचार की मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार लिया जाता है किन्तु गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह बात प्रामाणिक करेंगे तो वह मानवीय संस्कृति का ही अवमूल्यन होगा। मात्र अवमूल्यन सिद्ध नहीं होती है। समाज किन्हीं आचरण के प्रारूपों को विहित या नहीं, उसकी इतिश्री भी होगी। अविहित मान सकता है किन्तु सामाजिक विहितता और अविहितता पुनश्च सदाचार की धारणाओं को सांवेगिक अभिव्यक्ति या नैतिक औचित्य या अनौचित्य से भिन्न है। एक कर्म अनैतिक होते "रुचि-सापेक्ष मानने पर भी, न तो सदाचार की मूल्यवत्ता को निरस्त हुए भी विहित माना जा सकता है अथवा नैतिक होते हुए भी अविहित किया जा सकता है और न सदाचार एवं दुराचार के मानदण्डों को फैशनों माना जा सकता है। कंजर जाति में चोरी, आदिम कबीलों में नरबलि के समान परिवर्तनशील माना जा सकता है। यदि सदाचार और दुराचार या मुस्लिम समाज में बहु-पत्नी-प्रथा विहित है। राजपूतों में लड़की के आधार पसन्दगी या नापसन्दगी है तो फिर पसन्दगी या नापसन्दगी __ को जन्मते ही मार डालना कभी विहित रहा था। अनेक देशों में के भावों की उत्पत्ति का आधार क्या है? क्यों हम चौर्य-कर्म को नापसन्द वेश्यावृत्ति, सम-लैंगिकता या मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक करते हैं और क्यों ईमानदारी को पसन्द करते हैं? सदाचार एवं दुराचार की है- किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है। क्या आचार के व्याख्या मात्र पसन्दगी और नापसन्दगी के रूप में नहीं की जा सकती। ये रूप सदाचार की कोटि आ जा सकते हैं? नग्नता को और शासनतन्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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