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________________ सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म २५३ और इसी प्रकार सामान्य स्थिति में जो मुक्ति के साधन हैं, वे ही किसी वाला मूल्य-परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा। यह परिस्थिति विशेष में बन्ध के कारण बन जाते हैं। प्रशमरतिप्रकरण सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना होता है वह (१४६) में उमास्वाति का कथन है परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं है। दैशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन देशं कालं पुरुषमवस्थामुपघातशुद्धपरिणामान् । हमारी सदाचार-सम्बन्धी धारणाओं को प्रभावित करते हैं। दैशिक और प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम्।। कालिक-परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि जो कर्म एक देश और अर्थात् एकान्त रूप से न तो कोई कर्म आचरणीय होता है और काल में विहित हों, वे दूसरे देश और काल में अविहित हो जावें। न एकान्त रूप से अनाचरणीय होता है, वस्तुतः किसी कर्म की अष्टकप्रकरण की टीका (२७/५) में कहा गया हैआचरणीयता और अनाचरणीयता देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति और उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालोभयान् प्रति। मन:स्थिति पर निर्भर होती है। महाभारत में भी इसी दृष्टिकोण का यस्यामकार्यं कार्यं स्यात् कर्म कायं च वर्जयेत् ।। समर्थन किया गया है, उसमें लिखा है दैशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था स एव धर्मः सोऽधमों देशकाले प्रतिष्ठितः । उत्पन्न हो जाती है, जिसमें कार्य, अकार्य की कोटि में और अकार्य, आदानमनृतं हिंसा धर्मोह्यावस्थिकस्मृतः ।। कार्य की कोटि में आ जाता है, किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था - शान्तिपर्व, ३६/११। नहीं, अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है, जिसे हम आपवादिक अर्थात् जो किसी देश और काल में धर्म (सदाचार) कहा जाता है, अवस्था के रूप में जानते हैं, किन्तु आपवादिक स्थिति में होने वाला वही किसी दूसरे देश और काल में अधर्म (दुराचार) बन जाता है यह परिवर्तन सामान्य स्थिति में होने वाले मूल्य-परिवर्तन से भिन्न और जो हिंसा, झूठ, चौर्यकर्म आदि सामान्य अवस्था में अधर्म (दुराचार) । स्वरूप का होता है। उसे वस्तुत: मूल्य-परिवर्तन कहना भी कठिन कहे जाते हैं, वही किसी परिस्थति विशेष में धर्म बन जाते हैं। वस्तुतः है। इसमें जिन मूल्यों का परिवर्तन होता है, वे मुख्यतः साधन-मूल्य कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं, जब सदाचार-दुराचार होते हैं। क्योंकि साधन-मूल्य आचरण से सम्बन्धित होते हैं और आचरण की कोटि में और दुराचार, सदाचार की कोटि में होता है। द्रौपदी परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं हो सकता। अत: उसमें परिस्थितियों के परिवर्तन का पाँचों पाण्डवों के साथ यद्यपि पति-पत्नी का सम्बन्ध था फिर भी के साथ परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार साधनभूत परम-आचरण उसकी गणना सदाचारी सती स्त्रियों में की जाती है, जबकि वर्तमान के नैतिक मानदण्ड परिवर्तित होते रहते हैं। समाज में इस प्रकार का आचरण दुराचार ही कहा जावेगा। किन्तु क्या दूसरे, व्यक्ति को समाज में जीवन जीना होता है और समाज इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सदाचार-दुराचार परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं होता है, अत: सामाजिक नैतिकता अपरिवर्तनीय का कोई शाश्वत मानदण्ड नहीं हो सकता है। वस्तुतः सदाचार या नहीं कही जा सकती, उसमें देशकालगत परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता दुराचार के किसी मानदण्ड का एकान्त रूप से निश्चय कर पाना कठिन है किन्तु उसकी यह परिवर्तनशीलता भी देशकाल सापेक्ष ही होती है। जो बाहर नैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से अनैतिक हो सकता है। वस्तुत: किसी परिस्थिति में किसी एक साध्य का नैतिक मूल्य है और जो बाहर से अनैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से नैतिक इतना प्रधान हो जाता है कि उसकी सिद्धि के लिए किसी दूसरे नैतिक हो सकता है। एक ओर तो व्यक्ति की आन्तरिक मनोवृत्तियाँ और मूल्य का निषेध आवश्यक हो जाता है, जैसे अन्याय के प्रतिकार के दूसरी ओर जागतिक परिस्थितियाँ किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता लिए हिंसा। किन्तु यह निषेध परिस्थिति-विशेष तक ही सीमित रहता को प्रभावित करती रहती हैं। अत: इस सम्बन्ध में कोई एकान्त नियम है। उस परिस्थिति के सामान्य होने पर धर्म पुन: धर्म बन जाता है कार्य नहीं करता है। हमें उन सब पहलुओं पर भी ध्यान देना होता और अधर्म, अधर्म बन जाता है। वस्तुत: आपवादिक अवस्था में कोई है जो कि किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता को प्रभावित कर सकते एक मूल्य इतना प्रधान प्रतीत होता है कि उसकी उपलब्धि के लिए हैं। जैन विचारकों ने सदाचार या नैतिकता के परिवर्तनशील और अपरि- हम अन्य मूल्यों की उपेक्षा कर देते हैं अथवा कभी-कभी सामान्य वर्तनशील अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों पक्षों पर विचार किया है। रूप से स्वीकृत उसी मूल्य के विरोधी तथ्य को हम उसका साधन बना लेते हैं। उदाहरण के लिए जब हमें जीवन-रक्षण ही एकमात्र मूल्य मंदाचार के मानदण्ड की परिवर्तनशीलता का प्रश्न प्रतीत होता है तो उस अवस्था में हम हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी , वस्तुत: सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन दैशिक और कालिक आदि को अनैतिक नहीं मानते हैं। इस प्रकार अपवाद की अवस्था आवश्यकता के अनुरूप होता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि- में एक मूल्य साध्य स्थान पर चला जाता है और अपने साधनों को अन्ये कृतयुगे धर्मस्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । मूल्यवत्ता प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु यह मूल्य-भ्रम ही है, अन्ये कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः ।।। उस समय भी चोरी या हिंसा मूल्य नहीं बन जाते हैं क्योंकि उनका - मनुस्मृति, १/८५। स्वत: कोई मूल्य नहीं है, वे तो उस साध्य की मूल्यवत्ता के कारण युग के ह्रास के अनुरूप सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग मूल्य के रूप में प्रतीत या आभासित होते हैं। इसका यह अर्थ कदापि के धर्म अलग-अलग होते हैं। यह परिस्थतियों के परिवर्तन से होने नहीं है कि अहिंसा के स्थान पर हिंसा, या सत्य के स्थान पर असत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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