SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता २४९ का शरीर परिवर्तनशील तो है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं। नैतिक परिवर्तनीय होते हैं। यद्यपि हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है मूल्यों का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता है, कि अनेक परिस्थितियों में सामान्य नियमों के भी अपवाद हो सकते जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर और परिस्थिति बदलती रहती हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर भी इतना तो ध्यान में रखना है। किन्तु मूल्यों की नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर रहता है। आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया वस्तुतः नैतिक मूल्यों की वास्तविकता प्रकृति में परिवर्तनशीलता जा सकता है। और अपरिवर्तनशीलता के दोनों ही पक्ष उपस्थित हैं। नीति का कौन यहाँ एक बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक नियमों सा पक्ष परिवर्तनशील होता है और कौन-सा पक्ष अपरिवर्तनशील होता एवं साध्य-मूल्यों की अपरिवर्तनशीलता भी एकान्तिक नहीं है। वस्तुत: है, इसे निम्नाङ्कित रूप में समझा जा सकता है। नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में एकान्त रूप से अपरिवर्तनशीलता और १. सङ्कल्प का नैतिक मूल्य अपरिवर्तनशील होता है और आचरण एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। का नैतिक मूल्य परिवर्तनशील होता है। हिंसा का सङ्कल्प कभी नैतिक यदि नैतिक मूल्य एकान्त रूप से परिवर्तनशील होंगे तो उनकी कोई नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नियमकता ही नहीं रह जावेगी। इसी प्रकार वे यदि एकान्त रूप से नहीं। दूसरे शब्दों में कर्म का जो मानसिक या बौद्धिक पक्ष है वह अपरिवर्तनशील होंगे तो सामाजिक सन्दर्भो के अनुरूप नहीं रह सकेंगे। निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय है किन्तु कर्म का जो व्यावहिरक एवं नैतिक-मूल्य इतने निलोंच तो नहीं है कि वे परिवर्तनशील सामाजिक आचरणात्मक पक्ष है, वह सापेक्ष एवं परिवर्तनशील है। सङ्कल्प का परिस्थितियों के साथ समायोजन नहीं कर सकें, किन्तु वे इतने लचीले क्षेत्र, प्रज्ञा का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना ही सर्वोच्च शासक भी नहीं कि हर कोई उन्हें अपने अनुरूप ढालकर उनके स्वरूप को है। अन्तस् में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है। वहाँ परिस्थितियों या ही विकृत कर दे। समाज का शासन नहीं है, अत: इस क्षेत्र में नैतिक-मूल्यों की निरपेक्षता एवं अपरिवर्तनशीलता सम्भव है। निष्काम कर्म-योग का दर्शन इसी परिवर्तनशीलता : प्रगति या प्रतिगति सिद्धान्त पर स्थित है, क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यात्मक आज परिवर्तनशीलता को प्रगति का लक्षण माना जाने लगा है, रूप कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता। अत: यह किन्तु क्या परिवर्तनशीलता प्रगति की परिचायक है? इस प्रश्न का माना जा सकता है कि वे मूल्य जो मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक उत्तर भी एकान्त रूप से नहीं दिया जा सकता है। परिवर्तनशीलता नीति से सम्बन्धित हैं, अपरिवर्तनीय हैं; किन्तु वे मूल्य जो आचरणात्मक प्रगति भी हो सकती है और प्रतिगति भी। पुन: कोई मूल्य-परिवर्तन या व्यवहारात्मक हैं, परिवर्तनीय हैं। एक दृष्टि से प्रगति कहा जा सकता है, वहीं दूसरी दृष्टि से प्रतिगति २. दूसरे, नैतिक-साध्य या नैतिक-आदर्श अपरिवर्तनशील होता भी कहा जा सकता है। वर्तमान युग के जीवन-मूल्य एक दृष्टि से है किन्तु उस साध्य के साधन परिवर्तनीय होते हैं। जो सर्वोच्च शुभ प्रगतिशील हो सकते हैं तो दूसरी दृष्टि से प्रतिगति के परिचायक भी है वह अपरिवर्तनीय है, किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति के जो कहे जा सकते हैं। आज एक ओर मनुष्य का ज्ञान बढ़ा है, समृद्धि नियम या मार्ग हैं वे विविध एवं परिवर्तनीय हैं, क्योंकि एक ही साध्य बढ़ी है, उसकी प्रकृति पर शासन करने की शक्ति बढ़ी है; किन्तु की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण दूसरी ओर जीवन में अक्षमता बढ़ी है, वासनाएँ बढ़ी हैं, असन्तोष रखना होगा कि सर्वोच्च शुभ को छोड़कर कुछ अन्य साध्य कभी साधन बढ़ा है। इसे क्या कहें प्रगति या प्रतिगति? आज नारी स्वातन्त्र्य को भी बन जाते हैं। अत: साध्य-साधन का वर्गीकरण निरपेक्ष नहीं है, एवं स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों को, प्रगति कहा जाता है, किन्तु पाण्डु-कुन्ती उनमें परिवर्तन सम्भव है। यद्यपि जब तक कोई मूल्य साध्य स्थान सम्वाद में जो नारी-स्वातन्त्र्य का चित्र है, उसकी अपेक्षा से तो आज पर बना रहता है, तब तक उसकी मूल्यवत्ता अपरिवर्तनीय रहती है। का यूरोप भी पिछड़ा हुआ ही कहा जावेगा। पाण्डु कहते हैंकिन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि किसी स्थिति में जो साध्यमूल्य अनावृताः किल पुरा स्त्रिय आसन् वरानने । है, वह कभी साधन-मूल्य नहीं बनेगा। मूल्य-विश्व के अनेकों मूल्य कामाचारविहारिण्यः स्वतन्त्राश्चारुहासिनि ।। ऐसे हैं, जो कभी साधन-मूल्य है, वही कभी साध्य-मूल्य है। अत: तासां व्युच्चरमाणानां कौमारात् सुभगे पतीन् । उनकी मूल्यवत्ता अपने स्थानपरिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती नाधर्मोऽभूद्वरारोहे स हि धर्मः पुराभवत् ।।१० है। पुनः वैयक्तिक रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के _ 'पूर्व काल में स्त्रियाँ अनावृत्त थीं, वे भोग-विलास के लिए स्वतन्त्र आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं होकर घूमा करती थीं, वे कौमार्य अवस्था में काम-सेवन करती थीं, है। अत: साधनमूल्यों को परिवर्तनीय मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण वह उनके लिए अधर्म नहीं था।' आज समाज में इन्हीं मूल्यों की पुन: हो सकता है। स्थापना करके हम प्रगति करेंगे या प्रतिगति, यह तो स्वयं हमारे विचारने ३. तीसरे, नैतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं और की वस्तु है। केवल प्रचलित एवं परम्परागत मूल्यों का निषेध नैतिक कुछ नियम उन मौलिक नियमों के सहायक होते हैं। साधारणतया सामान्य प्रगति का लक्षण नहीं है। आज हमें मानवीय विवेक के आलोक में या मूलभूत नियम ही अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, विशेष नियम सर्वप्रथम मूल्यों का पुनर्मूल्याङ्कन करना होगा। हमारी नैतिक प्रगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy