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________________ २४२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं। इस प्रकार बाह्य-विधानवाद नैतिक-प्रतिमान का कोई एक सिद्धान्त जावे। इस सन्दर्भ में सुखवाद और बुद्धिवाद का विवाद तो सुप्रसिद्ध प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है। समकालीन अनुमोदनात्मक सिद्धान्त ही है। जहाँ सुखवाद मनुष्य के अनुभूत्यात्मक (वासनात्मक) पक्ष की (Approvative Theories) भी जो नैतिक प्रतिमान को वैयक्तिक संतुष्टि को मानव जीवन का साध्य घोषित करता है वहाँ बुद्धिवाद रुचि-सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक अनुमोदन पर निर्भर मानते भावना-निरपेक्ष बुद्धि के आदेशों के परिपालन में ही नैतिक कर्तव्यों हैं किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान दे पाने का दावा करने में असमर्थ की पूर्णता को देखता है। इस प्रकार सुखवाद और बुद्धिवाद के नैतिक हैं। व्यक्तियों का रुचि-वैविध्य और समाजिक आदर्शों में पायी जाने प्रतिमान एक दूसरे से भिन्न हैं। इसका मूल कारण दोनों की मूल्यवाली भिन्नताएँ सुस्पष्ट ही हैं। धार्मिक अनुशंसा भी अलग-अलग होती दृष्टि ही भिन्न है, एक भोगवाद का समर्थक है तो दूसरा वैराग्यवाद हैं; एक धर्म जिन कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता का। मात्र यही नहीं सुखवादी विचारक को कौन सा सुख साध्या है? है, दूसरा धर्म उन्हीं कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है। इस प्रश्न पर एक मत नहीं हैं। कोई वैयक्तिक सुख को साध्य बताता वैदिकधर्म और इस्लाम जहाँ पशुबलि को वैध मानते हैं वही जैनधर्म है तो कोई सष्टि के सुख को अथवा अधिकतम लोगों के अधिकतम और बौद्धधर्म उन्हें अनैतिक और अवैध मानते हैं। निष्कर्ष यही है सुख को। पुन: यह सुख ऐन्द्रिक सुख हो या मानसिक सुख हो अथवा कि वे सभी सिद्धान्त किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान का दावा आध्यात्मिक आनन्द हो; इस प्रश्न पर भी मतभेद हैं। वैराग्यवादी परम्पराएँ करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी वैयक्तिक रुचि, सामाजिक भी सुख को साध्य मानती हैं, किन्तु वे जिस सुख की बात करती अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनुशंसा को मानते हैं। हैं वह सुख वस्तुगत नहीं। वह इच्छा, आसक्ति या तृष्णा के समाप्त अन्तःप्रज्ञावाद अथवा सरल शब्दों में कहें तो अन्तरात्मा के होने पर चेतना की निर्द्वन्द्व, तनावरहित समाधिपूर्ण अवस्था है। इस अनुमोदन का सिद्धान्त भी किसी एक नैतिक प्रतिमान को दे पाने प्रकार सुख को साध्य मानने के प्रश्न पर उनमें आम-सहमति होते हुए में असमर्थ है। यद्यपि यह कहा जाता है कि अन्तरात्मा के निर्णय भी उनके नैतिक प्रतिमान भिन्न-भिन्न ही होंगे, क्योंकि सुख की प्रकृति सरल, सहज और अपरोक्ष होते हैं, फिर भी अनुभव यही बताता है भिन्न-भिन्न है। कि अन्तरात्मा के निर्णयों में एकरूपता नहीं पायी जाती है। प्रथम यद्यपि पूर्णतावाद आत्मोपलब्धि को साध्य मानकर सुखवाद और तो स्वयं अन्तःप्रज्ञावादी ही इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं कि इस बुद्धिवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयत्न अवश्य करता है, किन्तु अन्तःप्रज्ञा की प्रकृति क्या है- बौद्धिक या भावनापरक। पुन: यह वह इस प्रयास में सफल हुआ है, यह नहीं कहा जा सकता। पुन: मानना कि सभी की अन्तरात्मा एक सी है, ठीक नहीं है, क्योंकि वह भी किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान को प्रस्तुत कर सकता अन्तरात्मा की प्रकृति और उसके निर्णय भी हमारे संस्कारों पर आधारित है, यह मानना भ्रान्तिपूर्ण है, क्योकि व्यक्तियों के हित न केवल भिन्न-भिन्न होते हैं। पशुबलि के सम्बन्ध में उन लोगों की अन्तरात्मा के निर्णय, हैं, अपितु परस्पर विरोधी भी हैं। रोगी का कल्याण और डाक्टर का जिनके धर्मों में बलि वैध मानी गई है, उनसे किसी वैष्णव एवं जैन कल्याण एक नहीं है। श्रमिक का कल्याण उसके स्वामी के कल्याण परिवार में संस्कारित व्यक्ति की अन्तरात्मा के निर्णय एक समान नहीं से पृथक् ही है। किसी सार्वभौम शुभ (Universal Good) की बात होवो अन्तरात्मा कोई सरल तथ्य नहीं है, जैसा कि अन्तःप्रज्ञावाद मानता कितनी ही आकर्षक क्यों हो, वह भ्रान्ति ही है। सार्वभौम शुभ है अपितु वह विवेकात्मक चेतना के विकास, पारिवारिक एवं सामाजिक (Universal good) और वैयक्तिक हितों के योग के अतिरिक्त संस्कारों तथा परिवेशजन्य तथ्यों के द्वारा निर्मित एक जटिल रचना किसी सामान्य हित (Common Good) की कल्पना, मात्र अमूर्त कल्पना है और ये तीनों बातें हमारी अन्तरात्मा को और उसके निर्णयों को है। न केवल व्यक्तियों के हित या शुभ अलग-अलग होंगे अपितु प्रभावित करती हैं। दो भिन्न-परिस्थितियों में एक ही व्यक्ति के हित भी पृथक-पृथक होंगे। इसी प्रकार साध्यवादी सिद्धान्त भी किसी सार्वभौम नैतिक एक ही व्यक्ति दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में दान देने वाला ओर दान मानदण्ड का दावा नहीं कर सकते हैं। सर्वप्रथम तो उनमें इस प्रश्न लेने वाला दोनों हो सकता है, किन्तु क्या दोनों स्थितियों में उसका को लेकर ही मतभेद है कि मानव-जीवन का साध्य क्या हो सकता हित समान होगा? समाज में एक का हित दूसरे के हित का बाधक है? मानवतावादी विचारक जो मानवीय गुणों के विकास को ही नैतिकता हो सकता है। मात्र यही नहीं हमारा एक हित हमारे ही दूसरे हित की कसौटी मानते हैं, इस बात पर आपस में सहमत नहीं हैं कि में बाधक हो सकता है। रसनेन्द्रिय या यौन-वासना की संतुष्टि का आत्मचेतनता, विवेकशीलता और संयम में किसे सर्वोच्च मानवीय शुभ और स्वास्थ्य सम्बन्धी शुभ भी सहभागी हो, यह आवश्यक नहीं गुण माना जावे। समकालीन मानवतावादियों में जहाँ वारनरफिटे है। वस्तुत: यह धारणा कि 'मनुष्य या मनुष्यों का कोई सामान्य शुभ आत्मचेतना को प्रमुख मानते हैं वहाँ सी०बी०गर्नेट और इस्रायल है' अपने आपमें अयथार्थ है। जिसे हम सामान्य शुभ कहना चाहते लेविन-विवेकशीलता को तथा इरविंग बबिट आत्मसंयम को प्रमुख हैं वह विभिन्न शुभों का एक ऐसा स्कन्ध है जिसमें न केवल भिन्न-भिन्न नैतिक गुण मानते हैं। पुनः साध्यवादी परम्परा के सामने यह प्रश्न भी शुभों की पृथक्-पृथक् सत्ता है अपितु वे एक दूसरे के विरोध में भी महत्त्वपूर्ण रहा है कि मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक खड़े हुए हैं। शुभ एक नहीं, अनेक हैं और उनमें पारस्परिक विरोध और सङ्कल्पात्मक पक्ष में से किसकी संतुष्टि को सर्वाधिक महत्त्व दिया भी है। क्या आत्मज्ञान और आत्मत्याग के बीच कोई विरोध नहीं है? 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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