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________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा २२१ दिखा सकते। वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व प्रस्तुत ग्रन्थ में पंचमहाभूतवादियों के उपरोक्त विचारों के है। वह परिमण्डलाकार अथवा गोल है। वह किस वर्ण और किस साथ-साथ पंचमहाभूत और छठा आत्मा ऐसे छः तत्वों को मानने वाले गन्ध से युक्त है अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रुक्ष है, विचारकों का भी उल्लेख हुआ है। इनकी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए अत: जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते उनका ही मत कहा गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं युक्ति संगत है। क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की होती। इतना ही जीवकाय है, इतना ही अस्तिकाय है और इतना ही तरह पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा- समग्र लोक है। पंचमहाभूत ही लोक का कारण है। संसार में तृण१. तलवार और म्यान की तरह २. मुंज और इषिका (सरकण्डा) कम्पन से लेकर जो कुछ होता है वह सब इन पाँच महाभूतों से होता की तरह ३. मांस और हड्डी की तरह ४. हथेली और आँवले की है। आत्मा के असत् अथवा अकर्ता होने से हिंसा आदि कार्यों में पुरुष तरह ५. दही और मक्खन की तरह ६. तिल की खली और तेल की दोष का भागी नहीं होता क्योंकि सभी कार्य भूतों के हैं। सम्भवतः यह तरह ७. ईख के रस और उसके छिलके की तरह ८. अरणि की विचारधारा सांख्य दर्शन का पूर्ववर्ती रूप है। इसमें पंचमहाभूतवादियों लकड़ी और आग की तरह। इस प्रकार जैनागमों में प्रस्तुत ग्रन्थ में की दृष्टि से आत्मा को असत् और पंचमहाभूत और षष्ठ आत्मवादियों ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तत की दृष्टि से आत्मा को अकर्ता कहा गया है। सूत्रकृतांग इनके अतिरिक्त करने का प्रयत्न किया गया है। पन: उनकी देहात्मवादी मान्यता के ईश्वर कारणवादी और नियतिवादी जीवन दृष्टियों को भी कर्म-सिद्धान्त आधार पर उनकी नीति सम्बन्धी अवधारणाओं को निम्न शब्दों में का विरोधी होने के कारण मिथ्यात्व का प्रतिपादक ही मानता है। इस प्रस्तुत किया गया है.... प्रकार ऋषिभाषित के देशोत्कल और सूत्रकृतांग के पंचमहाभूत एवं यदि शरीर मात्र ही जीव है तो परलोक नहीं है। इसी प्रकार षष्ठ आत्मवादियों के उपरोक्त विवरण में पर्याप्त रूप से निकटता क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, भला-बुरा, सिद्धि देखी जा सकती है। जैनों की मान्यता यह थी कि वे सभी विचारक असिद्धि, स्वर्ग-नरक आदि भी नहीं है। अत: प्राणियों के वध करने. मिथ्यादृष्टि हैं, जिनकी दार्शनिक मान्यताओं में धर्माधर्म व्यवस्था या भूमि को खोदने, वनस्पतियों को काटने, अग्नि को जलाने, भोजन कर्म सिद्धान्त की अवधारणा नहीं होती है। हम यह देखते हैं कि यद्यपि पकाने आदि क्रियाओं में भी कोई पाप नहीं है। सूत्रकृतांग में शरीर आत्मवाद की स्थापना करते हुए देह और आत्मा प्रस्तुत ग्रन्थ में देहात्मवाद की यक्ति-यक्त समीक्षा न करके भिन्न-भिन्न हैं, इस मान्यता का तार्किक रूप से निरसन किया गया है मात्र यह कहा गया है कि ऐसे लोग हमारा ही धर्म सत्य है ऐसा किन्तु यह मान्यता क्यों समुचित नहीं है? इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप प्रतिपादन करते हैं और श्रमण होकर भी सांसारिक भोग विलासों में से कोई भी तर्क नहीं दिये गये हैं। सूत्रकृतांग भी देहात्मवाद के फंस जाते हैं। दृष्टिकोण के समर्थन में तो तर्क देता है, किन्तु उसके निरसन में कोई इसी अध्याय में पुन: पंचमहाभूतवादियों तथा पंचमहाभूत तक न तर्क नहीं देता है। और छठाँ आत्मा मानने वाले सांख्यों का भी उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की सूचना के अनुसार पंचमहाभूतवादी स्पष्ट रूप से यह मानते थे राजप्रश्नीयसूत्र में चार्वाक मत का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा२३ कि इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ है। जिनसे हमारी क्रिया, चार्वाक दर्शन के देहात्मवादी दृष्टिकोण के समर्थन में और अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, उसके खण्डन के लिए तर्क प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रन्थ राजप्रश्नीय नरक गति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति, अधिक कहाँ तक कहें सूत्र है। यही एक मात्र ऐसा प्राकृत आगम ग्रन्थ है जो चार्वाक दर्शन के तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी (इन्हीं पंचमहाभतों से) होती है। उच्छेदवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों के उस भत समवाय (समहको पशक-पक नाम से जानना सन्दर्भ में अपने तर्क प्रस्तुत करता है। राजप्रश्नीय में चार्वाकों की इन चाहिए जैसे कि पृथ्वी एक महाभूत है, जल दसरा महाभत है. तेज मान्यताओं के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पाँचवा महाभत को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है ये पाँच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित नहीं है न ही ये किसी १. राजा प्रसेनजित या पएसी कहता है, हे! केशीकुमार कर्ता द्वारा बनवाये हए हैं, ये किये हये नहीं है.न ही ये कत्रिम हैं और श्रमण! मेरे दादा अत्यन्त अधार्मिक थे। आपके कथनानुसार वे अवश्य न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँचों ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह को अत्यन्त प्रिय था. महाभत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्ध्य-आवश्यक कार्य करने अतः पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र! मैं वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये तुम्हारा पितामह था और इसी सेयंविया (श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक स्वतन्त्र एवं शाश्वत नित्य है। यह ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऐसा कोई यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालनभी सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता है, जिसमें मात्र चार महाभूत (आकाश रक्षण नहा करता था। इस कारण बहुत एव अताव कलुष रक्षण नहीं करता था। इस कारण बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों को छोड़कर) मानने वाले चार्वाकोंडल्लेख हुआ हो। का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूँ। किन्तु हे पौत्र! तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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