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________________ प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों को नामकर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या १०३ मानी गई है लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप हैं- १. शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और २. अशुभनामकर्म ( बुरा व्यक्तित्व)। प्राणी जगत् में, जो आर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका आधार नामकर्म है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ शुभनाम कर्म के बन्ध के कारण जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं- १. शरीर की सरलता, २ वाणी की सरलता, ३. मन या विचारों की सरलता, ४ अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामंजस्यपूर्ण जीवन शुभनामकर्म का विपाक उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक १४ प्रकार का माना गया है- (१) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी (इष्ट शब्द) (२) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप) (३) शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि (इष्ट-गंध) (४) जैवीय रसों की समुचितता (इष्ट-रस) (५) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श) (६) अचपल योग्य गति (इष्ट गति) (७) अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट-स्थिति) (८) लावण्य (९) यशःकीर्ति का प्रसार (इष्ट-यश: कीर्ति) (१०) योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट-उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम) (११) लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर (१२) कान्त स्वर (१३) प्रिय स्वर और (१४) मनोज्ञ स्वर अशुभ नाम कर्म के कारण निम्न चार प्रकार के अशुभाचरण से व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है- (१) शरीर की वक्रता, (२) वचन की वक्रता (३) मन की वक्रता और ( ४ ) अहंकार एवं मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्य पूर्ण जीवन। अशुभनाम कर्म का विपाक १. अप्रभावक वाणी (अनिष्ट शब्द), २. असुन्दर शरीर (अनिष्ट-स्पर्श), ३. शारीरिक मलों का दुर्गन्धयुक्त होना (अनिष्टगंध), ४. जैवीयरसों की असमुचितता (अनिष्टरस), ५. अप्रिय स्पर्श, ६. अनिष्ट गति, ७. अंगों का समुचित स्थान पर न होना (अनिष्ट स्थिति), ८. सौन्दर्य का अभाव, ९. अपयश, १० पुरुषार्थं करने की शक्ति का अभाव, ११. हीन स्वर, १२. दीन स्वर, १३. अप्रिय स्वर और १४. अकान्त स्वर । - Jain Education International ७. गोत्र कर्म जिसके कारण व्यक्ति प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित कुलों में जन्म लेता है, वह गोत्र कर्म है। यह दो प्रकार का माना गया है- १. उच्च गोत्र (प्रतिष्ठित कुल) और २. नीच गोत्र (अप्रतिष्ठित कुल ) । २१४ किस प्रकार के आचरण के कारण प्राणी का अप्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है और किस प्रकार के आचरण से प्राणी का प्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है, इस पर जैनाचार - दर्शन में विचार किया गया है। अहंकारवृत्ति ही इसका प्रमुख कारण मानी गई है। उच्च-गोत्र एवं नीच गोत्र के कर्मबन्ध के कारण निम्न आठ बातों का अहंकार न करने वाला व्यक्ति भविष्य में प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है- १. जाति, २. कुल ३. बल (शरीरिक शक्ति), ४. रूप (सौन्दर्य), ५. तपस्या (साधना ), ६. ज्ञान (श्रुत), ७. लाभ (उपलब्धियां) और ८. स्वामित्व (अधिकार)। इनके विपरीत जो व्यि उपर्युक्त आठ प्रकार का अहंकार करता है, वह नीच कुल में जन्म लेता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार भी अहंकार रहित गुणग्राही दृष्टि वाला, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला तथा भक्त उच्च-गोत्र को प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच गोत्र को प्राप्त करना है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र के बन्ध के हेतु हैं। इसके विपरीत पर प्रशंसा, आत्म-निन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन और नम्रवृत्ति एवं निरभिमानता ये उच्च-गोत्र के बन्ध के हेतु हैं। गोत्र कर्म का विपाक - विपाक (फल) दृष्टि से विचार करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अहंकार नहीं करता, वह प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर निम्नोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है- १. निष्कलंक मातृ पक्ष (जाति), २. प्रतिष्ठित पितृ पक्ष (कुल), ३. सबल शरीर, ४. सौन्दर्ययुक्त शरीर, ५. उच्च साधना एवं तप-शक्ति, ६. तीव्र बुद्धि एवं विपुलशान राशि पर अधिकार ७. लाभ एवं विविध उपलब्धियाँ और ८. अधिकार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति। लेकिन अहंकारी व्यक्तित्व उपर्युक्त समग्र क्षमताओं से अथवा इनमें से किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता है। ८. अन्तराय कर्म अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचाने वाले कारण को अन्तराय कर्म कहते है। यह पाँच प्रकार का है १. दानान्तराय-दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके, २. लाभान्तराय - कोई प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी कारण से उसमें बाधा आ जाना, - ३. भोगान्तराय भोग में बाधा उपस्थित होना जैसे व्यक्ति सम्पन्न हो, भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी बना हो लेकिन अस्वस्थता के कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े, ४. उपभोगान्तराय — उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता, ५. वीर्यान्तराय शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग नहीं किया जा सकना । (तत्त्वार्थसूत्र, ८.१४ ) जैन नीति दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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