SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ - प्राध्यापक के रूप में आपकी पदोन्नति करने के लिए शासन प्रतीक्षारत था। उधर परिवार के लोग भी यह चाहते थे कि ग्वालियर जैसे सुदूर नगर की अपेक्षा शाजापुर के निकटवर्ती उज्जैन, इन्दौर आदि स्थानों पर आपका स्थानान्तरण हो जाय । संयोग से तत्कालीन उपशिक्षा मंत्री श्री कन्हैयालाल मेहता आपके परिजनों के परिचित थे, अत: नवम्बर १९६७ में आपको शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर स्थानान्तरित किया गया एवं जुलाई १९६८ में सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बनाकर आपको हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल भेज दिया गया। वैसे तो इन्दौर और भोपाल दोनों ही आपके गृह नगर शाजापुर से नजदीक थे, किन्तु इन्दौर की अपेक्षा भोपाल में अध्ययन की दृष्टि से यहाँ अधिक समय-मिलने की सम्भवना थी। अत: आपने १ अगस्त १९६८ को हमीदिया महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया । इस महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय प्रारम्भ ही हुआ था और मात्र दो छात्र थे। अतः प्रारम्भ में अध्यापन कार्य का अधिक भार न होने से आपने शोध-प्रबन्ध को पूर्ण करने का प्रयत्न किया और अगस्त १९६९ में लगभग १५०० पृष्ठों, का बृहद्काय शोधप्रबन्ध परीक्षार्थ प्रस्तुत कर दिया । विभाग में छात्रों की अत्यल्प संख्या और महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय के उपेक्षित होने के करण आपका मन पूरी तरह नहीं लग पा रहा था, अत: आपने दर्शनशास्त्र को लोकप्रिय बनाने का बीड़ा उठाया। संयोग से आपके भोपाल पहुंचने के बाद दूसरे वर्ष ही भोपाल विश्वविद्यालय की स्थापना हो गयी और आपको दर्शनशास्त्र विषय की अध्ययन समिति का अध्यक्ष तथा कला संकाय एवं विद्वत् परिषद का सदस्य बनने का मौका मिला । आपने पाठ्यक्रम में समाजदर्शन, धर्मदर्शन, जैसे रूचिकर प्रश्नपत्रों का समायोजन किया। साथ ही छात्र और महाविद्यालय की परिस्थितियों के अनुरूप मुस्लिम-दर्शन और ईसाई-दर्शन के विशिष्ट पाठ्यक्रम निर्धारित किये । एक ओर संशोधित पाठ्यक्रम और दूसरी ओर आपकी अध्यापन शैली के प्रभाव से छात्र संख्या में वृद्धि होने लगी। स्थिति यहाँ तक पहुंच गई कि बी. ए. प्रथम वर्ष में लगभग सौ से भी अधिक छात्र होने लगे और परिणामस्वरूप अध्यापन-कक्ष छोटे पड़ने लगे। अन्ततोगत्वा महाविद्यालय के एक छोटे हाल में दर्शनशास्त्र की कक्षाएँ लगने लगीं। यह आपकी अध्यापन शैली और छात्रों के प्रति आत्मीयता का ही परिणाम था कि सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में दर्शन शास्त्र के विद्यार्थियों की संख्या की दृष्टि से आपका महाविद्यालय सर्वोच्च स्थान पर आ गया। लगभग ३०० छात्रों को प्रतिदिन पाँच-पाँच पीरियड पढ़ाकर महाविद्यालय के कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों में आपने अपना स्थान बना लिया। महाविद्यालय में प्रवेश समिति, टाइम-टेबल समिति, छात्र परिषद तथा परीक्षा सम्बन्धी गतिविधियों से भी आप शीघ्र ही जुड़ गये और इस सम्बन्ध में प्राचार्य के द्वारा दिये गये दायित्वों का प्रामाणिकता के साथ निर्वाह किया । मात्र यही नहीं, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषयों के प्रारम्भ होने पर आपने उनकी कक्षाओं में भी अध्यापन किया। इस प्रकार एक प्रबुद्ध और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक के रूप में आपकी छवि उभर कर सामने आई। आपने दर्शनशास्त्र में अन्य अध्यापकों के पदों के सृजन और दर्शनशास्त्र के स्नातकोत्तर अध्ययन प्रारम्भ किये जाने के लिए भी प्रयत्न प्रारम्भ किये और इसमें आपको सफलता भी मिली । आपको श्री प्रमोद कोयल जैसा योग्य साथी मिल गया। स्नातकोत्तर कक्षाओं के खोलने के सम्बन्ध में भी शासन सहमत हो गया, किन्तु इसी बीच आपको प्रतिनियुक्ति पर पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में निदेशक बनकर बनारस आना पड़ा। फिर भी आपकी एवं आपके साथी प्रमोद कोयल की पहल सफल रही और शासन ने हमीदिया महाविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षाएँ प्रारम्भ करने का निर्देश दे ही दिया । भोपाल में दर्शनशास्त्र अध्ययन समिति के अध्यक्ष होने के नाते आपको प्रो. चन्दधर शर्मा, प्रो. एस. एस. बारलिंगे जैसे सुप्रसिद्ध दार्शनिकों के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अवधि में २५००वीं महावीर निर्वाण शताब्दी के प्रसंग पर रायपुर, उज्जैन, इन्दौर, पूना और उदयपुर के विश्वविद्यालयों द्वारा व्याख्यान एवं संगोष्ठियों में भाग लेने हेतु आप आमन्त्रित किये गये। अब आप भोपाल में ही थे तब दर्शनशास्त्र के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम हेतु एक माह के लिए आप पूना विश्वविद्यालय गये। वहाँ प्रो. एस.एस.बारलिंगे के द्वारा दर्शनशास्त्र विभाग में एक जैन चेयर स्थापित करने के प्रयासों में आप भी सहयोगी बने । पूना के जैन समाज के अग्रगण्यों, विशेष रूप से श्री नवलमल जी फिरोदिया के सहयोग से वहाँ जैन चेयर की स्थापना भी हुई। फिरोदिया जी और प्रो. बारलिंगे की हार्दिक इच्छा थी कि आप पूना की जैन चेयर को सम्भालें, किन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था । पं.दलसुखभाई मालवणिया का आदेश था कि आप पार्श्वनाथ विद्याश्रम की चरमराती हुई स्थिति को सम्हालने के लिए वाराणसी जायें। आपके सामने एक कठिन समस्या थी, एक ओर स्थायित्वपूर्ण शासकीय सेवा तथा घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy