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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १८८ (अ) जैन दृष्टि में पुरुषार्थचतुष्टय विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान सामान्यतया यह समझा जाता है निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न (अविरोधी) हैं। अपनीमोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्मपुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान रूप धर्म, स्वच्छाशय प्रयुक्त होने में ही है। अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं अर्थ और विस्त्रम्भयुक्त अर्थात् मर्यादानुकूल वैवाहिक नियन्त्रण से है। जैन-विचारकों के अनुसार अर्थ अनर्थ का मूल है,२ सभी काम स्वीकृत काम, जिनवाणी के अनुसार, परस्पर अविरोधी हैं। ये पुरुषार्थ दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन यह विचार एकांगी ही माना परस्पर अविरोधी तभी होते हैं जब वे मोक्षाभिमुख होते हैं और जब वे जायेगा। कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। जैन विचारकों मोक्षाभिमुख होकर परस्पर अविरोध की स्थिति में हों, असपत्न हों, तो ने सदैव ही व्यक्ति को स्वपुरुषार्थ से धनोपार्जन की प्रेरणा दी है। वे यह वे सम्यक् होते हैं, इसलिए आचरणीय होते हैं। किन्तु जब मोक्ष-मार्ग मानते हैं कि व्यक्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से उपार्जित सम्पत्ति के से विमुख होकर पुरुषार्थ-चतुष्टय परस्पर विरोध में या निरपेक्ष होते हैं, भोग करने का अधिकार है। दूसरों के द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग तब वे असम्यक् या अनुचित एवं अनाचरणीय होते हैं। करने का उसे कोई अधिकार नहीं है। गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और (ब) बौद्ध दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है। दोनों का ही भोग वर्जित है। भगवान् बुद्ध यद्यपि निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा के अनुगामी अत: स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग हैं, तथापि उनके विचारों में अर्थ एवं काम पुरुषार्थ के सम्बन्ध में भी करना न्यायसंगत है। जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन- दिशाबोध उपलब्ध है। दीघनिकाय में अर्थ की उपलब्धि के लिए श्रम किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है। करते रहने का सन्देश उपलब्ध होता है। बुद्ध कहते हैं- आज बहुत सर्दी ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वणिकों को है, आज बहुत गर्मी है, अब तो सन्ध्या (देर) हो गयी, इस प्रकार श्रम वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन से दूर भागता हुआ मनुष्य धनहीन हो जाता है। किन्तु जो सर्दी-गर्मी करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास आदि को सहकर कठोर परिश्रम करता है, वह कभी सुख से वंचित है।५ यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ नहीं होता जैसे प्रयत्नवान रहने से मधुमक्खी का छत्ता बढ़ता है, और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय हैं। चींटी का वल्मीक बढ़ता है, वैसे ही प्रयत्नशील मनुष्य का ऐश्वर्य लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त बढ़ता है। इतना ही नहीं, प्राप्त सम्पदा का उपयोग किस प्रकार हो, रूप से हेय हैं। यदि वे एकान्त रूप से हेय होते तो आदि तीर्थंकर इस सम्बन्ध में भी बुद्ध का निर्देश है कि सद्गृहस्थ प्राप्त धन के एक भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की ६४ और पुरुषों की ७२ कलाओं का भाग का उपभोग करे, दो भागों को व्यापार आदि कार्यक्षेत्र में लगाये विधान कैसे करते? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएँ अर्थ और काम और चौथे भाग को आपत्ति काल में काम आने के लिए सुरक्षित रख पुरुषार्थ से सम्बन्धित हैं।६ न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक छोड़े।११ आज का प्रगतिशील अर्थशास्त्री भी आर्थिक प्रगति के लिए मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है। जैन विचारकों इससे अच्छे सूत्र प्रस्तुत नही कर सकता। बुद्ध केवल अर्थशास्त्री के रूप ने जिसके त्याग पर बल दिया है वह इन्द्रिय-विषयों का भोग नहीं, में ही नहीं, वरन् एक सामाजिक अर्थशास्त्री के रूप में हमारे सामने भोगों के प्रति आसक्ति या राग-द्वेष की वृत्ति है। जैन मान्यता के आते हैं। वे इस बारे में भी पूर्ण सतर्क हैं कि यदि समाज में धन का अनुसार कर्म-विपाक से उपलब्ध भोगों से बचा नही जा सकता। समुचित वितरण नहीं होगा तो अराजकता और असुरक्षा उत्पन्न होगी। इन्द्रियों के सम्मुख उनके विषय उपस्थित होने पर उनके आस्वाद से भी वे कहते हैं, निर्धनों को धन नहीं दिये जाने से दरिद्रता बहुत बढ़ गयी बचना सम्भव नही है, जो सम्भव है वह यह कि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति और दरिद्रता के बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ़ गयी।१२ चोरी के न रखी जाये। इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने जीवन के वासनात्मक एवं बहुत बढ़ने का अर्थ धन की असुरक्षा है। इसके पीछे बुद्ध का निर्देश सौन्दर्यात्मक पक्ष को धर्मोन्मुखी बनाने तथा उनके पारस्परिक विरोध यही है कि समाज में धन का समवितरण होना चाहिए ताकि समाज का को समाप्त करने का भी प्रयास किया है। उनके अनुसार मोक्षाभिमुख कोई भी वर्ग अभाव से पीड़ित न हो। बुद्ध की दृष्टि में अर्थ को कभी परस्पर अविरोध में रहे हुए सभी पुरुषार्थ आचरणीय हैं। आचार्य भी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए, वे धर्मयुक्त व्यवसाय में नियोजित हेमचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्मपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का होने का ही निर्देश देते हैं।१३ जो जीवन में धन का दान एवं भोग के इस प्रकार आचरण करे कि कोई किसी का बाधक न हो।७ रूप में समुचित उपयोग नहीं करता, उसका धन निरर्थक है, क्योंकि भद्रआर्य (दूसरी सती) ने तो आचार्य हेमचन्द्र (११वीं शताब्दी) मरनेवाले के पीछे उसका धन आदि नहीं जाता है और न धन से के पूर्व ही यह उद्घोषणा कर दी थी कि जैन परम्परा में तो पुरुषार्थचतुष्टय जरामरण से ही छुटकारा मिल सकता है।१४ कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में अविरोध रहते हैं। आचार्य बड़े ही स्पष्ट एव मार्मिक शब्दों में लिखते बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करता है। उदान में बुद्ध हैं कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई विचारक परस्पर कहते हैं, “ब्रह्मचर्य जीवन के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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