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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन १६५ विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक करने का प्रयास हो सकता है। लेकिन इनके लिए प्राथमिक आवश्यकता परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्तों एवं साधनों के बाह्य है धार्मिक सहिष्णुता और सर्व धर्म समभाव की। नियमों का प्रतिपादन किया। देशकालगत परिस्थितियों और साधक की अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म साधना के बाह्य रूपों परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक सहिष्णुता तो सर्व विदित में विभिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी। ही है। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, किन्तु मनुष्य को अपने धर्माचार्य के प्रति ममता (रागात्मकता) और न्याय दर्शन के ईश्वर कर्तृत्ववाद और वेदान्त के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने अपने-अपने धर्म या में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रन्थ लोकतत्त्व संग्रह में साधना पद्धति को ही एक मात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य आचार्य हरिभद्र लिखते हैं:किया। फलस्वरूप विभिन्न धर्मिक सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिक पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। वैमनस्य का प्रारम्भ हुआ। मुनिश्री नेमीचन्द्रजी ने धर्म सम्प्रदायों के युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।। उद्भव की एक सजीव व्याख्या प्रस्तुत की है, वे लिखते हैं कि 'मनुष्य मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि स्वभाव बड़ा विचित्र है उसके अहं को जरा सी चोट लगते ही वह मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना अपना अखाड़ा अलग बनाने को तैयार हो सकता है। यद्यपि वैयक्तिक चाहिए। अहं धर्म-सम्प्रदायों के निर्माण का एक कारण अवश्य है लेकिन वही इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते एक मात्र कारण नहीं है। बौद्धिक भिन्नता और देशकालगत तथ्य भी समय सर्व देव समभाव का परिचय देते हुा कहा था:इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में भववीजांकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । आयी हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी सम्प्रदाय बने। उनके ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ।। अनुसार सम्प्रदाय बनने के निम्न कारण हो सकते हैं: संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं (१) ईर्ष्या के कारण (२) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की उसे, मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या लिप्सा के कारण (३) किसी वैचारिक मतभेद (मताग्रह) के कारण (४) जिन हों। किसी आचार संबंधी नियमोपनियम में भेद के कारण (५) किसी व्यक्ति या पूर्व सम्प्रदाय द्वारा अपमान या खींचतान होने के कारण (६) किसी (द) पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद दृष्टि का उपयोग : विशेष सत्य को प्राप्त करने की दृष्टि से (७) किसी साम्प्रदायिक कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में परम्परा या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपर्युक्त कारणों में अंतिम दो को छोड़कर निर्माण करेगा। सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र शेष सभी कारणों से उत्पन्न सम्पद्राय आग्रह, धार्मिक असहिष्णुता और होते हैं- पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल कारण साम्प्रदायिक विद्वेष को जन्म देते हैं। दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों विश्व इतिहास का अध्येता इसे भलीभांति जानता है कि के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये। आश्चर्य तो यह मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्त प्लावन को धर्म का की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। एक बाना पहनाया गया। शान्ति प्रदाता धर्म ही अशांति का कारण बना। प्राचीन संस्कारों से ग्रसित होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण उपर्युक्त भी चाहता है। है। यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है होती है किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो उसमें भी कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में किया था, एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं। जब कि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से अनेकांत विचार-दृष्टि विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है क्योंकि वैयक्तिक रुचि भेद एवं भी होती है कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जिये, जैसा वह अपने क्षमता भेद तथा देश काल गत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत स्वसुर पक्ष उससे एक विचार- सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण सम्प्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक नहीं अपितु अशांति और बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित वस्तुत: इसके मूल में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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