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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन १५५ २. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध ३. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता तथा प्रसंगों में किया है। उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि ४. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता। हे भगवन्! जीव नित्य या अनित्य है? हे गौतम! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी है और अनित्य भी। भगवन्! यह कैसे? हे गौतम! द्रव्य दृष्टि (अ) वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता : से जीव नित्य है, पर्याय दृष्टि से अनित्या इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि-हे सोमिल! द्रव्य-दृष्टि से के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से करते हैं। वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों में अनेक भी हूँ। वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहुत ही विस्तार के साथ हुआ पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ गुलाब है किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपर्युक्त एक-दो का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त हैं, स्पर्श की दृष्टि से उसकी वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण हैं, उसमें एक विशिष्ट स्वाद धर्म-युगलों की एक साथ उपस्थिति अनुभव-सिद्ध है। एक ही आम्रफल है, आदि आदि। यह तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा) दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की पुत्रत्व के दो विरोधी गुण अपेक्षा भेद से एक ही व्यक्ति में एक ही समय अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का, में साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम मोगरे का या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं विरोधी धर्म युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव नहीं है। अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में भी है। पुन: यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और होना सम्भव है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही व्यक्ति छोटा या बड़ा अव्यक्त पर्यायों (सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण धर्मों की कहा जा सकता है अथवा एक ही वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच है। जो संखिया जनसाधरण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक जावेगी। अत: यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मों, अनन्तगुणों वैद्य की दृष्टि में औषधि (जीवन-संजीवनी) भी है। अत: यह एक एवं अनन्तपर्यायों का पुंज है। मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर उपस्थिति देखी जाती है। यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि विरोधी गुण मान लेती है वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्म युगलों की उपस्थिति नहीं है। इस सम्बन्ध साथ रहते हुए देखे जाते हैं। में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है--"यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, है। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायदृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना प्रसंग आ जावेगा। अत: यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है। पुन: उत्पत्ति और केवल वे ही विरोधी धर्म युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है। किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का किसका होगा? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यताकोई स्थिति नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म अनित्यता, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या अनेक विरोधी धर्म युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में आचार्य अमृतचन्द्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व को अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है।९ वस्तु एकान्तिक न उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया। जिनोपदिष्ट होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग-व्यवच्छेदिका में यह त्रिपदी ही अनेकान्तवादी विचार-पद्धति का आधार है। स्याद्वाद लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद् की मुद्रा से युक्त हैं, और नयवाद सम्बन्धी विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है। त्रिपदी ही कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता।१० यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह जिन द्वारा वपित वह "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य विकसित हुआ है। यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप की सूचक डाल देता है किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, तो हम क्या करें? 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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