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________________ १४८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पृथक्-पृथक् सत्ता नहीं रहती है, अपितु वे सब मिलकर एक सामान्य समालोचना करते हुए कहते हैं कि 'वाक्य एक अविभाज्य एवं अपद तत्त्व का अर्थबोध देते हैं और यही वाक्यार्थ होता है। इस मत के इकाई है', यह मान्यता एक प्रकार की कपोल-कल्पना ही है क्योंकि अनुसार यद्यपि पदों के संघात से ही वाक्य बनता है फिर भी यह वाक्य पद के बिना वाक्य नहीं होता है, वाक्य में साकांक्ष पदों का होना से पृथक् होकर उन पदों के अर्थबोध सामर्थ्य को स्वीकार नहीं करता नितान्त आवश्यक है। वाक्य में पदों की पूर्ण अवलेहना करना या यह है। यद्यपि वाक्य का प्रत्येक पद अपनी सत्ता रखता है, तथापि वाक्यार्थ मानना कि पद और पद के अर्थ का वाक्य में काई स्थान ही नहीं है, एक अलग इकाई है और पदों का कोई अर्थ हो सकता है तो वाक्य एक प्रकार से आनुभविक सत्य से विमुख होना ही है। प्रभाचन्द्र ने इस में रहकर ही हो सकता है। जैसे शरीर का कोई अंग अपनी क्रियाशीलता मत के सम्बन्ध में वे सभी आपत्तियाँ उठायी हैं जो कि स्फोटवाद के शरीर में रहकर ही बनाये रखता है, स्वतन्त्र होकर नहीं। पद वाक्य के सम्बन्ध में उठायी जा सकती हैं। यह मत वस्तुतः स्फोटवाद का ही एक अंग के रूप में ही अपना अर्थ पाते हैं। __रूप है, जो वाक्यार्थ के सम्बन्ध में यह प्रतिपादित करता है कि पद या जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत की समीक्षा करते हुए कहते उनसे निर्मित वाक्य अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं, किन्तु स्फोट (अर्थ का हैं कि यदि जाति या सामान्यक्तत्व का तात्पर्य परस्पर सापेक्ष पदों का प्राकट्य) ही अर्थ का प्रतिपादक है।यदि शब्दार्थ के बोध के सम्बन्ध में निरपेक्ष समूह है, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि वह दृष्टिकोण तो स्फोटवाद एकमात्र और अन्तिम सिद्धान्त नहीं है क्योंकि यह इसे स्पष्ट स्वयं जैनों को भी स्वीकार्य है। किन्तु यदि जाति को पदों से भिन्न माना नहीं कर पाता है कि पदाभाव में अर्थका स्फोट क्यों नहीं हो जाता? जायेगा तो ऐसी स्थिति में इस मत में भी वे सभी दोष उपस्थित हो अत: वाक्य को अखण्ड और निरवयव नहीं माना जा सकता। क्योंकि जायेंगे जो संघतवाद में दिखाये गये हैं क्योंकि जिस प्रकार पदसंघात पद वाक्य के अपरिहार्य घटक हैं और वे शब्दरूप में वाक्य से स्वतन्त्र पदों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होकर ही अर्थबोध प्रदान होकर भी अपना अर्थ रखते हैं, पुनः पदों के अभाव में वाक्य नहीं करता है, उसी प्रकार यह जाति या सामान्य तत्त्व भी पदों से कथंचित् होता है अत: वाक्य को निरवयव नहीं कहा जा सकता। भित्र और कथंचित् अभिन्न रहकर ही वाक्यार्थ का अवबोध करा सकता है, क्योंकि सामान्य तत्त्व या जाति को व्यक्ति (अंश) से न तो पूर्णतः (५) क्रमवाद भिन्न माना जा सकता है और न पूर्णत: अभिन्न ही। पद भी वाक्य से क्रमवाद भी संघातवाद का ही एक विशेषरूप है। इस मत के न तो सर्वथा भिन्न होते हैं और न सर्वथा अभिन्न ही। उनकी सापेक्षिक अनुसार पद को वाक्य का अपरिहार्य अंश तो माना गया है किन्तु पदों भिन्नाभिन्नता ही वाक्यार्थ की बोधक बनती है। की सहस्थिति की अपेक्षा पदों के क्रम को वाक्यार्थ के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्रम ही वास्तविक वाक्य है। जिस प्रकार वर्ण (४) वाक्य अखण्ड इकाई है यदि एक सुनिश्चितक्रम में नहीं हो तो उनसे पद नहीं बनता है, उसी वैयाकरणिक वाक्य की एक अखण्ड सत्ता मानते हैं। उनके प्रकार यदि पद भी निश्चित क्रम में न हों तो उनसे वाक्य नहीं बनेगा। अनुसार वाक्य अपने आप में एक इकाई है और वाक्य से पृथक् पद सार्थक वाक्य के लिए पदों का क्रमगत विन्यास आवश्यक है। पद का कोई अस्तित्त्व ही नहीं है। जिस प्रकार पद के बनाने वाले वर्षों में क्रम ही वस्तुत: वाक्य की रचना करता है और उसी से वाक्यार्थ का पद के अर्थ को खोजना व्यर्थ है उसी प्रकार वाक्य को बनानेवाले पदों बोध होता है। पदों का एक अपना अर्थ होता है और एक विशिष्टार्थ। में वाक्यार्थ का खोजना व्यर्थ है। वस्तुत: एकत्व में ही वाक्यार्थ का पदों का एक विशिष्ट अर्थ उनमें क्रमपूर्वक विन्यास-दशा में ही व्यक्त बोध होता है। इस मत के अनुसार वाक्य में पद और वर्ण का विभाजन होता है। पदों का यह क्रमपूर्वक विन्यास ही वाक्य का स्वरूप ग्रहण समीचीन नहीं है। वाक्य जिस अर्थ का द्योतक है, वह अर्थ पद या पदों करता है। के संघात या पद-समूह में नहीं है। वाक्य को एक इकाई मानने में जैन साथ ही क्रमवाद काल की निरन्तरता पर बल देता है और आचार्यों को भी कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वे स्वयं वाक्य को सापेक्ष यह मानता है कि काल का व्यवधान होने से पद-क्रम टूट जाता है और पदों की एक निरपेक्ष इकाई मानते हैं। उनका कहना केवल इतना ही है पदक्रम के टूटने से वाक्य नष्ट हो जाता है। क्रमवाद में एक पद के बाद कि वाक्य को एक अखण्ड सत्ता या निरपेक्ष इकाई मानते हुए भी हमें आनेवाले दूसरे पद को प्रथम पद का उपकारक स्वीकार किया जाता है। यह नहीं भूल जाना चाहिए कि उनकी रचना में पदों का एक महत्वपूर्ण पदों का यह नियत क्रम ही उपचीयमान अर्थात् प्रकट होनेवाले अर्थ का स्थान है। अंश से पूर्णतया पृथक् अंशी की कल्पना जिस प्रकार द्योतक होता है। समुचित नहीं, उसी प्रकार पदों की पूर्ण उपेक्षा करके वाक्यार्थ का बोध जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत को संघातवाद से अधिक सम्भव नहीं है। वाक्य निरपेक्ष इकाई होते हुए भी सापेक्ष पद समूह से भिन्न नहीं मानते हैं मात्र अन्तर यह है कि जहाँ संघातवाद पदों की ही निर्मित है। अत: वे भी वाक्य का एक महत्वपूर्ण घटक हैं, अतः सहवर्तिता पर बल देता है, वहाँ क्रमवाद क्रम पर। उनके अनुसार इस अर्थबोध में उन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। मत में भी वे सभी दोष हैं जो संघातवाद में हैं क्योंकि यहाँ भी देश और आचार्य प्रभाचन्द्र वाक्य के इस अखण्डता सिद्धान्त की काल की विभिन्नता का प्रश्न उठता है- एक देश और काल में क्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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