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________________ जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु १३७ सम्प्रेषण के लिए भाषा मिली हुई है। शब्द प्रतीकों, जो कि सार्थक लेकर एक मध्यवर्गीय दृष्टिकोण अपनाया है। वे बौद्धों के समान यह ध्वनि संकेतों के सुव्यवस्थित रूप हैं, के माध्यम से अपने विचारों एवं मानने के लिए सहमत नहीं हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का भावों के अभिव्यक्ति दे पाना यही उसकी विशिष्टता है। क्योंकि भाषा के संस्पर्श ही नहीं करता है। किन्तु वे मीमांसकों के समान यह भी नहीं माध्यम से मनुष्य जितनी स्पष्टता के साथ अपने विचारों एवं भावों का मानना चाहते हैं कि शब्द अपने विषय का समग्र चित्र प्रस्तुत कर सम्प्रेषण कर सकता है, उतनी स्पष्टता से विश्व का दूसरा कोई प्राणी सकता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द और उसके द्वारा संकेतित नहीं। उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति मात्र ध्वनि-संकेत या अंग- अर्थ या विषय में एक सम्बन्ध तो है, किन्तु वह संबंध ऐसा नहीं है कि संकेत से किसी वस्तु की स्वादानुभूति की अभिव्यक्ति उतनी स्पष्टता से शब्द अपने विषय या अर्थ का स्थान ही ले ले। दूसरे शब्दों में शब्द नहीं कर सकता है, जितनी भाषा के माध्यम से कर सकता है। यद्यपि और उनके विषयों में तद्रूपता का सम्बन्ध नहीं है। प्रभाचन्द्र शब्द और भाषा या शब्द-प्रतीकों के माध्यम से की गई यह अभिव्यक्ति अपूर्ण, अर्थ में तद्रूप संबंध का खण्डन करते हुए कहते हैं कि मोदक शब्द के आंशिक एवं मात्र संकेत ही होती है, फिर भी अभिव्यक्ति का इससे उच्चारण से मीठे स्वाद की अनुभूति नहीं होती है, अत: मोदक शब्द अधिक स्पष्ट कोई माध्यम खोजा नहीं जा सकता है। और मोदक नामक वस्तु-दोनों भिन्न-भिन्न हैं। (न्यायकुमुदचन्द्र, भाग२, पृ० ५३६) किन्तु इससे यह भी नहीं समझ लेना चाहिए कि शब्द और भाषा का स्वरूप उनके विषय अर्थ के बीच कोई संबंध ही नहीं है। शब्द अर्थ या विषय __ हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं का संकेतक तो है, किन्तु उसका स्थान नहीं ले सकता है।अर्थ बोध की भावनाओं के कुछ शब्द प्रतीक बना लिए हैं और भाषा हमारे इन शब्द- प्रक्रिया में शब्द को अपने अर्थ या विषय का प्रतिनिधि (रिप्रेजेन्टेटिव) प्रतीकों का ही एक सुनियोजित खेल है। संक्षेप में कहें तो हमने उन्हें तो कहा जा सकता है, फिर भी शब्द अपने विषय या अर्थ का हबहू "नाम" दे दिया है और इन्हीं नामों के माध्यमों से हम अपने भावों, चित्र नहीं है, जैसे नक्शे में प्रदर्शित नदी वास्तविक नदी की संकेतक विचारों एवं तथ्य संबंधी जानकारियों का सम्प्रेषण दूसरों तक करते हैं। तो है, किन्तु न तो वह वास्तविक नदी है और उसका हूबहू प्रतिबिंब उदाहरण के लिए हम कुर्सी शब्द से एक विशिष्ट वस्तु को अथवा ही है, वैसे ही शब्द और उनसे निर्मित भाषा भी अपने अर्थ या विषय "प्रेम" शब्द से एक विशिष्ट भावना को संकेतित करते हैं। मात्र यही की संकेतक तो है, किन्तु उसका हूबहू प्रतिबिंब नहीं हैं। फिर भी वह नहीं, व्यक्तियों, वस्तुओं, गुणों, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं अपने विषय का एक चित्र श्रोता या पाठक के सम्मुख अवश्य प्रस्तुत के पारस्परिक विभिन्न प्रकार के संबंधों के लिए अथवा उन संबंधों के कर देता है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में ज्ञापक और ज्ञाप्य संबंध है, अभाव के लिए भी शब्द प्रतीक बना लिए गए हैं। भाषा की रचना इन्हीं उसी प्रकार शब्द और अर्थ (विषय) में प्रतिपादक और प्रतिपाद्य संबंध सार्थक शब्द प्रतीकों के ताने-बाने से हुई है। भाषा शब्द-प्रतीकों की वह है।यद्यपि जैन दार्शनिक शब्द और उसके अर्थ में सम्बन्ध स्वीकार करते नियमबद्ध व्यवस्था है, जो वक्ता के द्वारा सम्प्रेषणीय भावों का ज्ञान - हैं, किन्तु यह मीमांसकों के समान नित्य सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि भाषा श्रोता को कराती है। के प्रचलन में अनेक बार शब्दों के अर्थ (मीनिंग) बदलते रहे हैं और एक समान उच्चारण के शब्द भी दो भिन्न भाषाओं में भिन्न अर्थ रखते शब्द एवं भाषा की अभिव्यक्ति सामर्थ्य हैं। शब्द अपने अर्थ का संकेतक अवश्य है, किन्तु अपने अर्थ के साथ यहाँ दार्शनिक प्रश्न यह है कि क्या इन शब्द-प्रतीकों में भी उसका नित्य तथा तद्रूप संबंध नहीं है। जैन दार्शनिक मीमांसकों के अपने विषय या अर्थ की अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है? क्या कुर्सी समान शब्द और अर्थ में नित्य तथा तद्रूप सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते शब्द कुसी नामक वस्तु को और प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हस्त संकेत आदि अपने अभिव्यंजनीय अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है? यह ठीक है कि शब्द अर्थ के साथ अनित्य रूप से संबंधित होकर इष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति अपने अर्थ या विषय का वाचक अथवा संकेतक है, किन्तु क्या कोई कर देते हैं, उसी प्रकार शब्द संकेत भी अपने अर्थ से अनित्य रूप से भी शब्द अपने वाच्य विषय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सक्षम है? संबंधित होकर भी अर्थबोध करा देते हैं।शब्द और अर्थ (विषय) दोनों क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुण धर्मों और पर्यायों (अवस्थाओं) की विविक्त सत्ताएं हैं। अर्थ में शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही का एक समग्र चित्र प्रस्तुत कर सकता है? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर है। फिर भी दोनों में एक ऐसा संबंध अवश्य है, जिससे शब्दों में अपने कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का अर्थ के वाचक होने की सीमित सामर्थ्य है। शब्द में अपने अर्थ या वाचक नहीं है तो फिर भाषा की प्रामाणिकता या उपयोगिता संदेहात्मक विषय का बोध कराने की एक सहज शक्ति होती है, जो उसकी संकेत बन जाती हैं किन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सही नहीं है शक्ति और प्रयोग पर निर्भर करती है। कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में इस प्रकार शब्द सहज-योग्यता, संकेतक-शक्ति और प्रयोग समर्थ है और अपने वाच्य का यथार्थ चित्र श्रोता के सम्मुख प्रस्तुत कर इन तीन के आधार पर अपने अर्थ या विषय से संबंधित होकर श्रोता देता है। जैन-आचार्यों ने शब्द और उसके अर्थ एवं विषय के संबंध को को अर्थबोध करा देता है। जैन-आचार्यों को बौद्धों का यह सिद्धान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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