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________________ १३० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ११ (अ) संसारिणस्त्रसस्थावराः। पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरा। तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः। - तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य पाठ) ९/१२-१४ (ब) पृथिव्यप्तेजावायुवनस्पतयः स्थावराः। - वही, सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ९/१२ १२. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका ९/१२ १३. ति थावरतणुजोगा अपिलाणलकाइया य तेसु तसा। मण परिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया।। -१११ १४ (अ) से किं थावरा?, तिविहा पन्न्ता, तंजहा-पुढविकाइया आउक्काइया वणस्सइकाइया।। - जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्तिसूत्र १० (ब) से किं तं तसा ? तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - तेउक्काइया वाउक्काइया ओराला तसा पाणा।। - वही, सूत्र २२ (स) गतित्रसेष्वन्तर्भावविवक्षणात, तेजोवायूनां लब्ध्या स्थावराणामपि सतां-टीका (अ), जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणाम। जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरतं होदि तं कम्मं थावरं णाम। आउ-तेउ-वाउकाइयाणं संचरणोवलंभादो ण तसत्तमत्थि, तेसिं गमणपरिणामस्स पारिणामियत्तादो। - षट्खण्डागम ५/५/१०१, खण्ड ५, भाग १,२,३, पुस्तक १३, पृ. ३६५ (ब). जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं तसत्तं होदि, तस्स कम्मस्स तसेत्ति सण्णां, कारणे कज्जुवयारादो। जदि तसणामकममं ण होज्ज, तो बीइंदियादीणमभावो होज्जा ण च एवं, तेसिमुबलभा। जस्स कम्मस्स उदएण जीवों थावरत्तं पडिवज्जदि तम्स कम्मस्स थावरसण्णा। - षद्खण्डागम १/९-१/२८, खण्ड १, भाग १, पुस्तक ६, पृ. ६१ (स). एते त्रसनामकर्मोदयवशवर्तितः। के पुन: स्थावराः इति चेत्? एकेन्द्रियाः कथमनुक्तमवगम्यते चेत्परिशेषात स्थावरकर्मण: किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम तेजोवाय्वप्कायिकानां चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्यादिति चेत्र, स्थास्तूनां प्रयोगतश्चलच्छित्रपर्णानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्तशरीरत्वतस्तेषां गमनाविरोधात - षट्खण्डागम, धवलाटीका १/१/४४, पृ. २७७ १६. अथ व्यवहारेणाग्निवातकायिकानां त्रसत्वं दर्शयति पृथिव्यब्वनस्पतयस्त्रयः स्थावरकायगोगात्सम्बन्धात्स्थावरा भण्यंते अनलानिलकायिकाः तेषु पंच स्थावरेषु मध्ये चलन क्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसाभण्यते। - पंचास्तिकाय: जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः, गाथा १११ की टीका जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु पुद्गल को भी अस्तिकाय द्रव्य माना गया है। यह मूर्त और जाता है। परवर्ती जैन दार्शनिकों ने तो पुद्गल शब्द का प्रयोग स्पष्टत: अचेतन द्रव्य है। पुद्गल का लक्षण शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि भौतिक तत्त्व के लिए ही किया है, और उसे ही दृश्य जगत् का कारण माना जाता है। इसके अतिरिक्त जैन आचार्यों ने हल्कापन, भारीपन, माना है। क्योंकि जैन दर्शन में पुद्गल ही ऐसा तत्त्व है, जिसे मूर्त या प्रकाश, अंधकार, छाया, आतप, शब्द, बन्ध-सामर्थ्य, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, इन्द्रियों की अनुभूति का विषय कहा गया है। वस्तुत: पुदगल के संस्थान, भेद, आदि को भी पुद्गल का लक्षण माना है (उत्तराध्ययन उपरोक्त गुण ही उसे हमारी इन्द्रियों के अनुभूति का विषय बनाते है। २८/१२७ एवं तत्त्वार्थ ५/२३-२४) । जहाँ धर्म, अधर्म और आकाश यहाँ यह भी ज्ञातव्य है जैन दर्शन में प्राणीय शरीर यहाँ तक एक द्रव्य माने गये हैं वहाँ पुद्गल अनेक द्रव्य है। जैन आचार्यों ने पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति का शरीर रूप दृश्य स्वरूप भी पुद्गल प्रत्येक परमाणु को एक स्वतन्त्र द्रव्य या इकाई माना है। वस्तुत: पुद्गल की ही निर्मिति है। विश्व में जो कुछ भी मूर्तिमान या इन्द्रिय-अनुभूति द्रव्य समस्त दृश्य जगत् का मूलभूत घटक हैं। का विषय है, वह सब पुद्गल का खेल है। इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान ज्ञातव्य है कि बौद्धदर्शन में और भगवती जैसे आगमों के देने योग्य तथ्य यह है कि जहाँ जैन दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और प्राचीन अंशों में पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव या चेतन तत्त्व के लिए भी वायु- इन चारों को शरीर अपेक्षा पुद्गल रूप मानने के कारण इनमें हुआ है, किन्तु इसे पौद्गलिक शरीर की अपेक्षा से ही जानना चाहिए। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण- ये चारों गुण माने गये है। जबकि वैशेषिक यद्यपि बौद्ध परम्परा में तो पुद्गल-प्रज्ञप्ति (पुग्गल पञ्चति) नामक एक आदि दर्शन मात्र पृथ्वी को ही उपर्युक्त चारों गुणों से युक्त मानते हैं वे ग्रन्थ ही है, जो जीव के प्रकारों आदि की चर्चा करता है। फिर भी जीवों जल को गन्ध रहित त्रिगुण, तेज को गन्ध और रस रहित मात्र द्विगुण के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग मुख्यत: शरीर की अपेक्षा से ही देखा और वायु को मात्र एक स्पर्शगुण वाला मानते हैं। यहाँ एक विशेष तथ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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