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________________ षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या विवरण प्रस्तुत किया गया है, उसे देखकर लगता है कि ग्रन्थकार पृथ्वी, अप्, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्पष्ट रूप से स्थावर के अन्तर्गत वर्गीकृत करता होगा, जबकि इस और वायुकायिक जीवों को वह स्थावर के अन्तर्गत नहीं मानता होगा, क्योंकि उसके प्रथम अध्ययन के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम इन चार उद्देशको में क्रमशः पृथ्वी, अप, अग्नि और वनस्पति- इन चार जीवनिकायों की हिंसा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसके पश्चात् षष्ठ अध्ययन में उसकाय की और सप्तम अध्ययन में वायुकायिक जीवों की हिंसा का उल्लेख किया है। इसका फलितार्थ यही है कि आचारांग के अनुसार वायुकायिक जीव स्थावर न होकर उस हैं। यदि आचारांगकार को वायुकायिक जीवों को स्थावर मानना होता तो वह उनका उल्लेख जसकोय के पूर्व करता। इस प्रकार आचारांग में पृथ्वी, अप्, अग्नि और वनस्पति ये चार स्थावर और वायुकाय तथा त्रसकाय वेदो स जीव माने गये हैं- ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यद्यपि ६ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही एक सन्दर्भ ऐसा भी है, जिसके आधार पर सकाय को छोड़कर शेष पाँचों को स्थावर माना जा सकता है, क्योंकि वहाँ पर पृथ्वी, वायु, अप्, अग्नि और वनस्पति का उल्लेख करके उसके पश्चात् त्रस का उल्लेख किया गया है । ७ २. ऋषिभाषित त्रस जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है, उसमें मात्र एक स्थल पर पजीवनिकाय का उल्लेख है। इस शब्द का उल्लेख भी है, किन्तु षट्जीवनिकाय में कौन त्रस है और कौन स्थावर है ऐसी चर्चा उसमें नहीं है। ३. उत्तराध्ययन आचारांग से जब हम उत्तराध्ययन की ओर आते हैं तो यह पाते हैं कि उसके २६ वें एवं ३६ वें अध्यायों में षट्जीवनिकाय का उल्लेख उपलब्ध होता है। २६ वें अध्याय में यद्यपि स्पष्ट रूप से त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की चर्चा तो नहीं की गई है, किन्तु उसमें जिस क्रम से षट्जीवनिकायों के नामों का निरूपण हुआ है उससे यही फलित होता है कि पृथ्वी, अप् (उदक), अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं और छठीं उसकाय ही उस है, किन्तु उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय की स्थिति इससे भिन्न है, एक तो उसमें सर्वप्रथम षट्जीवनिकाय को उस और स्थावर ऐसे दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है और दूसरे स्थावर के अन्तर्गत पृथ्वी, अप् और वनस्पति को तथा उस के अन्तर्गत अग्नि, वायु और त्रसजीवनिकाय को रखा गया है।" इस प्रकार यद्यपि उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय से आचारांग की वायु को त्रसकायिक मानने की अवधारणा की पुष्टि होती है किन्तु जहाँ तक अग्निकाय का प्रश्न है, उसे जहाँ आचारांग के अनुसार स्थावर निकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सका है, वहाँ उत्तराध्ययन में उसे स्पष्ट रूप से त्रसनिकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। इस Jain Education International १२७ प्रकार दोनों में आंशिक मतभेद भी परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययन का यह दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य मूलपाठ) में और तत्त्वार्थभाष्य में भी स्वीकृत किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि निर्बन्ध परम्परा में प्राचीनकाल में यही दृष्टिकोण विशेष रूप से मान्य रहा होगा। ४. दशवैकालिक जहाँ तक दशवैकालिक का प्रश्न है, उसका चतुर्थ अध्याय तो षट्जीवनिकाय के नाम से ही जाना जाता है उसमें इस एवं स्थावर का स्पष्टतया वर्गीकरण तो नहीं किया गया है, किन्तु जिस क्रम में उनका प्रस्तुतिकरण हुआ है, १० उससे यह धारणा बनाई जा सकती है। कि दशवैकालिक पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर ही मानता होगा। षट्जीवनिकाय के क्रम को लेकर दशवैकालिक की स्थिति उत्तराध्ययन के २६ वें अध्ययन के समान है, किन्तु आचारांग से तथा उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय से भिन्न है। ५. जीवाभिगम , त्रस उपांग साहित्य में प्रज्ञापना में जीवों के प्रकारों की चर्चा ऐन्द्रिक आधारों पर की गई इस और स्थावर के आधार पर नहीं जीवों का उस और स्थावर का वर्गीकरण जीवाभिगमसूत्र में मिलता है उसमें स्पष्ट रूप से पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु एवं द्वीन्द्रियादि को उस कहा गया है इस दृष्टि से जीवाभिगम और उत्तराध्ययन का दृष्टिकोण समान है। जीवाभिगम की टीका में मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो सर्दी-गर्मी के कारण एक स्थान का त्याग करके दूसरे स्थान पर जाते हैं, वे त्रस है अथवा जो इच्छापूर्वक ऊर्ध्व, अघ एवं तिर्यक् दिशा में गमन करते हैं, वे उस हैं। उन्होंने लब्धि से तेज (अग्नि) और वायु को स्थावर, किन्तु गति की अपेक्षा से त्रस कहा है। ११ ६. तत्त्वार्थसूत्र जहाँ तक जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण सूत्र शैली के ग्रन्थ तत्त्वार्थ का प्रश्न है, उसके श्वेताम्बर सम्मत मूलपाठ में तथा तत्त्वार्थ के उमास्वाति के स्वोपज्ञ भाष्य में पृथ्वी, अप् और वनस्पति — इन तीन को स्थावरनिकाय में और शेष तीन अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को सनिकाय में वर्गीकृत किया गया है। १२ इस प्रकार तत्वार्थसूत्र और तत्वार्थभाष्य का पाठ उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय के दृष्टिकोण के समान ही है तत्वार्थ का यह दृष्टिकोण आचारांग के प्राचीनतम दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें अग्नि को स्पष्ट रूप से त्रस माना गया है, जब कि आचारांग के अनुसार उसे स्थावर वर्ग के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है। अब हम दिगम्बर परम्परा की ओर मुड़ते हैं तो उसके द्वारा मान्य तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के मूल पाठ और उसकी टीका- दोनों में पंचस्थावरों की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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