SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण १२३ अल्पत्व और बहुत्व आदि का विचार इन्हीं जैविक शक्तियों की दृष्टि से अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होंगी। फिर स्थित्यन्तर या भिन्न-भिन्न किया जाता है। जितनी अधिक प्राण शक्तियों से युक्त प्राणी की हिंसा परिणामों, शुभाशुभ भावों की शक्यता न होने से पुण्य-पाप की विभिन्न की जाती है, वह उतनी ही भयंकर समझी जाती है। वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ भी सम्भव नहीं होंगी, न बन्धन और मोक्ष की उपपत्ति ही सम्भव होगी। क्योंकि वहाँ एक क्षण के पर्याय ने जो कार्य गतियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण किया था, उसका फल दूसरे क्षण के पर्याय को मिलेगा, क्योंकि वहाँ जैन परम्परा में गतियों के आधार पर जीव चार प्रकार के उन सतत परिवर्तनशील पर्यायों के मध्य कोई अनुस्यूत एक स्थायी माने गए हैं- (१) देव, (२) मनुष्य, (३) पशु (तिर्यंच) और (४) तत्त्व (द्रव्य) नहीं हैं, अत: यह कहा जा सकेगा कि जिसने किया था नारक। जहाँ तक शक्ति और क्षमता का प्रश्न है देव का स्थान मनुष्य उसे फल नहीं मिला और जिसने नहीं किया था उसे मिला, अर्थात् से ऊँचा माना गया है। लेकिन जहाँ तक नैतिक साधना की बात है जैन नैतिक कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से अकृतागम और कृतप्रणाश का दोष परम्परा मनुष्य-जन्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानती है। उसके अनुसार मानव- होगा,३३ अतः आत्मा को नित्य मानकर भी सतत परिवर्तनशील जीवन ही ऐसा जीवन है जिससे मुक्ति या नैतिक पूर्णता प्राप्त की जा (अनित्य) माना जाये तो उसमें शुभाशुभ आदि विभिन्न भावों की स्थिति सकती है। जैन परम्परा के अनुसार केवल मनुष्य ही सिद्ध हो सकता मानने के साथ ही उसके फलों का भावान्तर में भोग भी सम्भव हो है, अन्य कोई नहीं। बौद्ध परम्परा में भी उपर्युक्त चारों जातियाँ स्वीकृत सकेगा। इस प्रकार जैन दर्शन सापेक्ष रूप से आत्मा को नित्य और रही हैं लेकिन उनमें देव और मनुष्य दोनों में ही मुक्त होने की क्षमता अनित्य दोनों स्वीकार करता है। को मान लिया गया है। बौद्ध परम्परा के अनुसार एक देव बिना मानव उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा अमूर्त होने के जन्म ग्रहण किये देव गति से सीधे ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है, कारण नित्य है।२ भगवतीसूत्र में भी जीव को अनादि, अनिधन, जबकि जैन परम्परा के अनुसार केवल मनुष्य ही निर्वाण का अधिकारी अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य कहा गया है।३५ लेकिन सब स्थानों है। इस प्रकार जैन परम्परा मानव-जन्म को चरम, मूल्यवान बना देती है। पर नित्यता का अर्थ परिणामी नित्यता ही समझना चाहिए। भगवतीसूत्र एवं विशेषावश्यकभाष्य में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है। आत्मा की अमरता भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्मा की अमरता का प्रश्न नैतिकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण आत्मा को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा हैहै। पाश्चात्य विचारक कांट आत्मा की अमरता को नैतिक जीवन की "भगवान् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?" सुसंगत व्याख्या के लिए आवश्यक मानते हैं। भारतीय आचारदर्शनों “गौतम ! जीव शाश्वत (नित्य) भी है और अशाश्वत (अनित्य) भी।" के प्राचीन युग में आत्मा की अमरता का सिद्धान्त विवाद का विषय “भगवान् ! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है, अनित्य भी?" रहा है। उस युग में यह प्रश्न आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता के रूप “गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, भाव की अपेक्षा से अनित्या ३६ में अथवा शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के रूप में बहुचर्चित रहा है। आत्मा-द्रव्य (सत्ता) की ओर से नित्य है अर्थात् आत्मा न तो वस्तुत: आत्म-अस्तित्व को लेकर दार्शनिकों में इतना विवाद नहीं है, कभी अनात्म (जड़) से उत्पन्न होती है और न किसी भी अवस्था में विवाद का विषय है-आत्मा की नित्यता और अनित्यता। यह विषय अपने चेतना लक्षण को छोड़कर जड़ बनती है। इसी दृष्टि से उसे नित्य तत्त्वज्ञान की अपेक्षा नैतिक दर्शन से अधिक सम्बन्धित है। जैन कहा जाता है। लेकिन आत्मा की मानसिक अवस्थाएँ परिवर्तित होती विचारकों ने नैतिक व्यवस्था को प्रमुख मानकर उसके आधार पर ही रहती हैं, अत: इस अपेक्षा से उसे अनित्य कहा गया है। आधुनिक नित्यता और अनित्यता की समस्या का हल खोजने की कोशिश की। दर्शन की भाषा में जैन दर्शन के अनुसार तात्त्विक आत्मा नित्य है और अत: यह देखना भी उपयोगी होगा कि आत्मा को नित्य अथवा अनित्य अनुभवाधारित आत्मा अनित्य है। जिस प्रकार स्वर्णाभूषण स्वर्ण की मानने पर नैतिक दृष्टि से कौन-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। दृष्टि से नित्य और आभूषण की दृष्टि से अनित्य है, उसी प्रकार आत्म आत्मा-तत्त्व की दृष्टि से नित्य और विचारों और भावों की दृष्टि से आत्मा की नित्यानित्यात्मकता अनित्य है। जैन विचारकों ने संसार और मोक्ष की उपपत्ति के लिए न तो जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में भगवान् महावीर ने अपने नित्य-आत्मवाद को उपयुक्त समझा और न अनित्य-आत्मवाद को। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है कि वे किस अपेक्षा से जीव को एकान्त नित्यवाद और एकान्त अनित्यवाद दोनों ही सदोष हैं। आचार्य नित्य मानते हैं और किस अपेक्षा से अनित्य। भगवान महावीर कहते हेमचन्द्र दोनों को नैतिक दर्शन की दृष्टि से अनुपयुक्त बताते हुए हैं-“हे जमाली, जीव शाश्वत है, तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं लिखते हैं, यदि आत्मा को एकान्त नित्य मानें तो इसका अर्थ होगा कि है जब यह जीव (आत्मा) नहीं था, नहीं है, अथवा नहीं होगा। इसी आत्मा में अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता। यदि इसे एकान्त अपेक्षा से यह जीवात्मा, नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अक्षय और अव्यय है। अनित्य मान लिया जाये तो सुख-दुःख, शुभ-अशुभ आदि भिन्न-भिन्न हे जमाली, जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मरकर तिर्यंच होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy