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________________ १२० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भिन्नत्व और एकत्व दोनों को स्वीकार किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने १. व्यावहारिक दृष्टि से शरीयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है। " आत्मा और शरीर के एकत्व और भिन्नत्व को लेकर यही विचार प्रकट २. अशुद्धनिश्चयनय या पर्याय दृष्टि से आत्मा अपनी मानसिक किये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा अनुभूतियों या मनोभावों का वेदक है। और देह एक ही है, लेकिन निश्चय दृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक ३. परमार्थ दृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र द्रष्टा नहीं हो सकते।१९ वस्तुत: आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना या साक्षीस्वरूप है।२४ स्तुति, वन्दन, सेवा आदि अनेक नैतिक आचरण की क्रियाएँ सम्भव आत्मा का भोक्तृत्व कर्म और प्रतिफल के संयोग के लिए नहीं हो सकतीं। दूसरी ओर आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आवश्यक है। जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों का भोक्ता आसक्तिनाश और भेदविज्ञान की सम्भावना नहीं हो सकती। नैतिक भी है, अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध और धार्मिक साधना की दृष्टि से आत्मा का शरीर से एकत्व और नहीं हो सकेगा, ऐसी स्थिति में धर्म एवं नैतिकता का कोई अर्थ ही अनेकत्व दोनों अपेक्षित हैं। यही जैन नैतिकता की मान्यता है। महावीर नहीं रह जायेगा। अत: यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन ने ऐकान्तिक वादों को छोड़कर अनैकन्तिक-दृष्टि को स्वीकार किया आत्मा का भोक्ता होना बद्धात्मा या शरीर के लिए ही समुचित है। और दोनों वादों का समन्वय किया। उन्होंने कहा कि आत्मा और शरीर अमुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूप या द्रष्टा होता है। कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं। आत्मा स्वदेह परिमाण है आत्मा परिणामी है यद्यपि जैन विचारणा में आत्माओं को रूप, रस, गन्ध, वर्ण, जैन दर्शन आत्मा को परिणामी मानता है, जबकि सांख्य एवं स्पर्श आदि से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार शांकर वेदान्त आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानते हैं। बुद्ध के स्वीकार किया गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से समकालीन विचारक पूर्णकाश्यप भी आत्मा को अपरिणामी मानते थे। दो दृष्टियाँ हैं-एक के अनुसार आत्मा विभु (सर्वव्यापी) है, दूसरी के आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में अनुसार अणु है। सांख्य, न्याय और अद्वैत वेदान्त आत्मा को विभु कोई विकार, परिवर्तन या स्थित्यन्तर नहीं होता। मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं। जैन दर्शन इस सम्बन्ध में जैन आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में यह वचन बहुतायत से उपलब्ध मध्यस्थ दृष्टि अपनाता है। उसके अनुसार आत्मा अणु भी है और विभु होते हैं कि आत्मा कर्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा भी है। वह सूक्ष्म है तो इतना है कि एक आकाश प्रदेश के अनन्तवें ही सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है।२० यह भी कहा गया है भाग में समा सकता है और विभु है तो इतना है कि समग्र लोक को कि सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता जितना व्याप्त कर सकता है।२५ जैन दर्शन आत्मा में संकोच विस्तार को दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है।२१ स्वीकार करता है और इस आधार पर आत्मा को स्वदेह-परिमाण यही नहीं, सूत्रकृतांग में आत्मा को अकर्ता मानने वाले लोगों मानता है। जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में रहने पर छोटे कमरे को की आलोचना करते हुए स्पष्ट रूप में कहा गया है-“कुछ दूसरे (लोग) और बड़े कमरे में रहने पर बड़े कमरे को प्रकाशित करता है वैसे ही तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना, कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं आत्मा भी जिस देह में रहता है उसे चैतन्याभिभूत कर देता है, किन्तु करता, वह तो अकर्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और यह बात केवल संसारी आत्मा के सम्बन्ध में है। मुक्तात्मा का आकार न उन्हें धर्म का ही भान है।२२ उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और अपने त्यक्त देह का दो तिहाई होता है। जीव को नाविक कहकर जीव पर नैतिक कर्मों का उत्तरदायित्व डाला गया है।२३ आत्मा के विभुत्व की समीक्षा १. यदि आत्मा विभु (सर्वव्यापक) है तो वह दूसरे शरीरों में आत्मा भोक्ता है भी होगा, फिर उन शरीरों के कर्मों के लिए उत्तरदायी होगा। यदि यह यदि आत्मा को कर्ता मानना आवश्यक है तो उसे भोक्ता भी माना जाये कि आत्मा दूसरे शरीरों में नहीं है, तो फिर वह सर्वव्यापक मानना पड़ेगा। क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है उसे ही उनके फलों का नहीं होगा। भोग भी करना चाहिए। जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुद्गलों के निमित्त से २. यदि आत्मा विभु है तो दूसरे शरीरों में होने वाले सुखसम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों के निमित्त से ही दुःख के भोग से कैसे बच सकेगा? सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये ३. विभु आत्मा के सिद्धान्त में कौन आत्मा किस शरीर जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं। भोक्तृत्व वेदनीय कर्म के कारण का नियामक है, यह बताना कठिन है। वस्तुत: नैतिक और धार्मिक ही सम्भव है। जैन दर्शन आत्मा का भोक्तृत्व भी सापेक्ष दृष्टि से जीवन के लिए प्रत्येक शरीर में एक आत्मा का सिद्धान्त ही संगत शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है। हो सकता है, ताकि उस शरीर के कर्मों के आधार पर उसे उत्तरदायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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