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________________ जैनदर्शन में सत् का स्वरूप १०५ पुनः पर्याय दो प्रकार की होती है- (१) अर्थ पर्याय और रस, गन्ध, स्पर्श आदि की अनुभूति हमारे मन पर निर्भर करती है। (२) व्यंजन पर्याय। एक ही पदार्थ की क्रमभावी पर्यायों को अर्थ पर्याय अत: वे वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मनोविकल्प ही हैं। उनकी कोई कहते हैं तथा पदार्थ की उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों में जो पर्याय वास्तविक सत्ता नहीं है। यदि हमारी इन्द्रियों की संरचना भित्र प्रकार की होती है उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं। अर्थ पर्याय सूक्ष्म एवं व्यंजन होती है तो उनसे हमें जो संवेदना होती वह भी भिन्न प्रकार की होती। पर्याय स्थूल होती हैं। यदि संसार के सभी प्राणियों की आँखों की संरचना में रंग-अंधता होती .. पर्याय को ऊर्ध्व पर्याय एवं तिर्यक् पर्याय के रूप में भी तो वे संसार की सभी वस्तुओं को केवल श्वेत-श्यामल रूप में ही वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे भूत, भविष्य और वर्तमान के अनेक देखते और उन्हें अन्य रंगों का कोई बाध नहीं होता। अत: लालादि रंगों मनुष्यों की अपेक्षा से मनुष्य की जो अनन्त पर्यायें होती हैं वे तिर्यक् के अस्तित्व का विचार ही नहीं होता है। जिस प्रकार इन्द्रधनुष के रंग पर्याय कही जाती हैं। यदि एक ही मनुष्य के प्रति क्षण होने वाले मात्र प्रतीति हैं वास्तविक नहीं अथवा जिस प्रकार हमारे स्वप्न की परिणमन को पर्याय कहें तो वह ऊर्ध्व पर्याय है। वस्तुएँ मात्र मनोकल्पनाएँ हैं, उसी प्रकार गुण और पर्याय भी मात्र ज्ञातव्य है कि पर्यायों में न केवल मात्रात्मक अर्थात् संख्या प्रतिभास हैं। ये हैं, चित्त-विकल्प वास्तविक नहीं हैं। और अंशों (Degree) की अपेक्षा से भेद होता है अपितु गुणों की किन्तु जैन दार्शनिक अन्य वस्तुवादी दाशनिकों (Realist) अपेक्षा से भी भेद होते हैं। मात्रा की अपेक्षा से एक अंश काला, दो के समान द्रव्य के साथ-साथ गुण और पर्याय को भी यथार्थ/वास्तविक अंश काला, अनन्त अंश काला आदि भेद होते हैं जबकि गुणात्मक मानते हैं। उनके अनुसार प्रतीति और प्रत्यय यथार्थ के ही होते हैं। जो दृष्टि से काला, लाल, श्वेत आदि अथवा खट्टा-मीठा आदि अथवा अयथार्थ हो उसका कोई प्रत्यय (Idea) या प्रतीति ही नहीं हो सकती मनुष्य, पशु, नारक, देवता आदि भेद होते हैं। है। आकाश-कुसुम या परी आदि की अयथार्थ कल्पनाएँ भी दो यथार्थ गुण और पर्याय की वास्तविकता का प्रश्न अनुभूतियों का चैत्तसिक स्तर पर किया गया मिश्रण मात्र है। स्वप्न भी जो दार्शनिक द्रव्य (सत्ता) और गुण में अभिन्नता, या तादात्म्य यथार्थ अनुभूतियों और उनके चैत्तसिक स्तर पर किये गये मिश्रणों से के प्रतिपादक हैं और जो परम सत्ता को तत्त्वत: अद्वैत मानते हैं, वे गुण ही निर्मित होते हैं, जन्मान्ध को कभी रंगों के कोई स्वप्न नहीं होते हैं। और पर्याय को वास्तविक नहीं, अपितु प्रातिभासिक मानते हैं, उनका अत: अयथार्थ की कोई प्रतीति नहीं हो सकती है। जैनों के अनुसार कहना है। कि रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि गुणों की परम सत्ता से अनुभूत का प्रत्येक विषय अपनी वास्तविक सत्ता रखता है। इससे न पृथक् कोई सत्ता ही नहीं है। उनके अनुसार परम सत्ता (ब्रह्म) निर्गुण है। केवल द्रव्य अपितु गुण और पर्याय भी वास्तविक (Real) हैं। सत्ता की इसी प्रकार विज्ञानवादी या प्रत्ययवादी दार्शनिकों के अनुसार परमाणु इस वास्तविकता के कारण ही प्राचीन जैन आचार्यों ने उसे अस्तिकाय भी एक ऐसा अविभागी पदार्थ है, जो विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा रूपादि कहा है। यही कारण है कि दार्शनिकों ने जैन दर्शन को वस्तुवादी और विभिन्न गुणों की प्रतीति कराता है, किन्तु वस्तुत: उसमें इन गुणों की बहुतत्त्ववादी दर्शन कहा है। कोई सत्ता नहीं होती है। इन दार्शनिकों की मान्यता यह है कि रूप, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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