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________________ मूलाचार : एक विवेचन ९५ अन्तिम ग्रन्थ जिसका इस गाथा में उल्लेख है, वह धर्मकथा में भी विचार कर लेना आवश्यक है । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों है। यह बात निश्चय ही विचारणीय है कि धर्मकथा से ग्रन्थकार का में छेद सूत्रों के अन्तर्गत आचारकल्प (दशाश्रुतस्कन्ध आचारदशा) और तात्पर्य किस ग्रन्थ से है। दिगम्बर परम्परा में धर्मकथानुयोग के रूप जीतकल्प उल्लेख उपलब्ध हैं। यापनीय परम्परा के एक अन्य ग्रन्थ में जो पुराण आदि साहित्य उपलब्ध है, वह किसी भी स्थिति में मूलाचार छेदशास्त्र में भी प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में आचारकल्प और जीतकल्प से पूर्ववर्ती नहीं है। टीकाकार वसुनन्दी ने धर्मकथा से त्रिषष्टिशलाकापुरुष का उल्लेख उपलब्ध होता है। यह स्पष्ट है कि आचारकल्प और जीतकल्प चरित्र आदि का जो तात्पर्य लिया है वह तब तक ग्राह्य नहीं बन सकता मुनि जीवन के आचार नियमों तथा उनसे सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का वर्णन जब तक कि त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र का विवेचन करने वाले मूलाचार करते हैं। पंचाचाराधिकार में तपाचार के सन्दर्भ में जो इन दो ग्रन्थों से पूर्व के कोई ग्रन्थ हों। यदि हम त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र से सम्बन्धित का उल्लेख है, वे वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारदशा और ग्रन्थों को देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी ग्रन्थ मूलाचार । जीतकल्प ही हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर आचार्यों के परवर्ती ही हैं। अत: यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है कि धर्मकथा ने यापनीय परम्परा के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि ये कल्पसूत्र से मूलाचार का क्या तात्पर्य है। इसके उत्तर के रूप में हमारे सामने का वाचन करते हैं। स्मरण रहे कि आचारकल्प का आठवाँ अध्ययन दो विकल्प हैं या तो हम यह मानें कि मूलाचार की रचना के पूर्व पर्युषणाकल्प के नाम से प्रसिद्ध है और पर्युषण पर्व के अवसर पर भी कुछ चरित ग्रन्थ रहें होगे जो धर्मकथा के नाम से जाने जाते होंगे, श्वेताम्बर परम्परा में पढ़ा जाता है। किन्तु यह कल्पना अधिक सन्तोषजनक नहीं लगती। दूसरा विकल्प इस प्रकार देखते हैं कि मूलाचार में जिन ग्रन्थों का निर्देश किया यह हो सकता है कि धर्मकथा से तात्पर्य 'नायधम्मकहा' से तो नहीं। गया है लगभग वे सभी ग्रन्थ आज भी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य और यह सर्वमान्य है कि 'नायधम्मकहा' की विषयवस्तु धर्मकथानुयोग से प्रचलित हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आगमिक ग्रन्थों के सम्बन्धित है। इस विकल्प को स्वीकार करने में केवल एक ही कठिनाई सन्दर्भ में मूलाचार की परम्परा श्वेताम्बर परम्परा के निकट है। यापनीयों है कि कुछ अंग-आगम भी अस्वाध्याय काल में पढ़े जा सकते हैं- के सन्दर्भ में यह स्पष्ट है कि वे श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम यह मानना होगा। एक और विकल्प हो सकता है। धर्मकथा से तात्पर्य साहित्य को मान्य करते थे। यह हम पूर्व में भी सूचित कर चुके हैं कहीं पउमचरिय आदि ग्रन्थ से तो नहीं है लेकिन यह कल्पनाएं ही कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में जिन ग्रन्थों का निर्माण ई० सन् हैं। मेरी दृष्टि में तो 'धम्मकहा' से मूलाचार का तात्पर्य 'नायधम्मकहा' की दूसरी शती तक हुआ था उसके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर और यापनीय से होगा। मूलाचार में उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त 'आयारकप्प' और दोनों ही रहे हैं। अत: मूलाचार में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ग्रन्थों 'जीदकप्प' ऐसे दो ग्रन्थों की और सूचना मिलती है अत: इनके सम्बन्ध का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है। संदर्भ: १. मूलाचार (सं० ज्ञानमती माताजी, भारतीय ज्ञानपीठ) भूमिका, पृ.११, साथ ही देखें- डॉ०ज्योतिप्रसाद जैन की प्रधान सम्पादकीय, पृ०६। विस्तृत चर्चा के लिये देखें- जैन साहित्य और इतिहास पं.नाथूरामजी प्रेमी, संशोधित साहित्यमाला, ठाकुर द्वार बम्बई, १९५६, पृ० ५४८-५५३। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अप्पसोधि णिज्झंझा । अज्जव-मद्दव-लाघव-वुट्टी पल्हादणं च गुणा ।।३८७।। मूलाचार ४. आराहणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावासय धम्मकहाओ य एरसिओ ।।२७९ ।। मूलाचार बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति । छेओवट्ठावणियं पुण भयवं उसहो उसहो य वीरो य। ७-३६ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स। अवराहपडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।।६२८।। मूलाचार ७. देखिए, पं०सुखलाल संघवीकृत 'पंचप्रतिक्रमण सूत्र'। ८. 'आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण।' 'सामाइयणिज्जुत्ती एसा कहिया मए समासेण।' 'चउवीसयणिज्जुत्ती एसा कहिया मए समासेण' आदि। ९. आवासयणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा । १०. एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहाक्खिओ पुव्वं । सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं ।।१८७।। ११. देखिए, कुन्दकुन्द अमृतसंग्रह, गा० २४-२७, पृ०सं०१३५। -संपा०पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री। १२. एवं विधाणचरियं चरंति जे साधवो य अज्जाओ । जगपुज्जं ते कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।९६।। मूलाचार १३. आराहणा निज्जुत्ति मरणविभत्तीयं संगहथुदिओ। पच्चखाणावासय धम्मकहाओ य एरिसओ ।।२७९।। मूलाचार १४. आयार जीदकप्प गुण दीवणा..... ।।३८७।। मूलाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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