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________________ ८८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ को देखते हैं तो स्पष्ट रूप से इसमें हमें बौद्धधर्म की अवधारणा के के उपदेष्टा के रूप में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, किन्तु इतना मूलतत्त्व परिलक्षित होते हैं। महाकश्यप अध्याय में सर्वप्रथम संसार निश्चित है कि इसमें चार्वाक के विचारों का पूरी प्रामाणिकता के साथ की दुःखमयता का चित्रण है। इसमें कर्म को दु:ख का मूल कहा गया प्रतिपादन हुआ है। ऋषिभाषित में वर्धमान का जो उपदेश है उसकी यथार्थ है और कर्म का मूल जन्म को बताया गया है जो कि बौद्धों के प्रतिच्छाया आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन प्रतीत्य-समुत्पाद का ही एक रूप है। इसी अध्याय में एक विशेषता में एवं उत्तराध्ययन के ३२वें अध्याय में यथावत् रूप से उपस्थित है। हमें यह देखने को मिलती है कि इसमें कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन उपर्युक्त आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि करते हुए 'सन्तानवाद' की चर्चा है जो कि बौद्धों का मूलभूत सिद्धान्त ऋषिभाषित में ऋषियों के उपदेश को सामान्य रूप से प्रामाणिकतापूर्वक है। इस अध्याय में निर्वाण के स्वरूप को समझाने के लिए बौद्ध दर्शन ही प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि इसमें मुख्य रूप से उनके आध्यात्मिक के मूलभूत दीपक वाले उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है। पूरा अध्याय और नैतिक विचारों का ही प्रस्तुतीकरण हुआ है और उसके पीछे निहित सन्तानवाद और कर्मसंस्कारों के माध्यम से वैराग्य का उपदेश प्रदान दर्शन पर इसमें कोई बल नहीं दिया गया है। दूसरे यह भी सत्य करता है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि इसमें बौद्धधर्म के है कि उनका प्रस्तुतीकरण या ग्रन्थ-रचना जैन परम्परा के आचार्यों मूल बीज उपस्थित हैं। इसी प्रकार ३८वें सारिपुत्त नामक अध्याय में के द्वारा हुई है। अत: यह स्वाभाविक था कि उसमें जैन परम्परा में भी बौद्ध धर्म के मूल उत्स मध्यममार्ग का प्रतिपादन मिलता है। इसके मान्य कुछ परम्परा की अवधारणाएँ प्रतिबिम्बित हो गयी हैं। पुन: इस साथ बुद्ध के प्रज्ञावाद का भी इसमें प्रतिपादन हुआ है। इस अध्याय विश्वास के भी पर्याप्त आधार हैं कि जिन्हें आज हम जैन परम्परा की में कहा गया है कि मनोज्ञ भोजन, शयनासन का सेवन करते हुए अवधारणाएँ कह रहे हैं, वे मूलत: अन्य परम्पराओं में प्रचलित रही और मनोज्ञ आवास में रहते हुए भिक्षु सुखपूर्वक ध्यान करता है, फिर हों और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हो गयी हों। अत: ऋषिभाषित भी प्राज्ञ पुरुष को सांसारिक पदार्थों में आसक्त नहीं होना चाहिए यही के ऋषियों के उपदेशों की प्रामाणिकता को पूर्णत: निरस्त नहीं किया बुद्ध का अनुशासन है। इस प्रकार यह अध्याय भी बुद्ध के उपदेशों जा सकता है। अधिक से अधिक हम केवल इतना ही कह सकते को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है। हैं कि उन पर परोक्षरूप से जैन परम्परा का कुछ प्रभाव आ गया है। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य नामक १२वें अध्याय में भी हम देखते हैं कि याज्ञवल्क्य के मूलभूत उपदेशों का प्रतिपादन हुआ है। ऋषिभाषित ऋषिभाषित के ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य का उल्लेख हमें उपनिषदों एवं महाभारत में भी यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि ऋषिभाषित में वर्णित अधिकांश मिलता है।३७ उपनिषद् में जहाँ याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी का संवाद है वहाँ ऋषिगण जैन परम्परा से सम्बन्धित नहीं हैं। उनके कुछ नामों के आगे उनकी संन्यास की इच्छा को स्पष्ट किया गया है। ऋषिभाषित में भी लगे हुए ब्राह्मण, परिव्राजक आदि शब्द ही उनका जैन परम्परा से याज्ञवल्क्य के उपदेश के रूप में लोकैषणा और वित्तैषणा के त्याग भिन्न होना सूचित करते हैं। दूसरे देव नारद, असितदेवल, अंगिरस की बात कही गयी है तथा यह कहा गया है कि जब तक लोकैषणा भारद्वाज, याज्ञवल्क्य , बाहुक, विदुर, वारिषेणवृष्ण, द्वैपायन, आरुणि, होती है तब तक वित्तैषणा होती है और जब वित्तैषणा होती है तो उद्दालक, नारायण, ऐसे नाम हैं जो वैदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध रहे लोकैषणा होती है। इसलिए लोकैषणा और वित्तषणा के स्वरूप को हैं और आज भी उनके उपदेश उपनिषदों, महाभारत एवं पुराणों में जानकर गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं जाना चाहिए। वस्तुत: सुरक्षित हैं, इनमें से देव नारद, असितदेवल, अंगिरस भारद्वाज, द्वैपायन ऐसा लगता है कि यहाँ निवृत्तिमार्ग को गोपथ और प्रवृत्तिमार्ग को के उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांगअन्तकृद्दशा, औपपातिक महापथ कहा गया है और याज्ञवल्क्य निवृत्ति मार्ग का उपदेश देते आदि जैन-ग्रन्थों में तथा बौद्ध त्रिपिटिक साहित्य में भी मिलते हैं। प्रतीत होते हैं। यहाँ सबसे विचारणीय बात यह है कि बौद्धधर्म में इसी प्रकार वज्जीयपुत्र, महाकाश्यप और सारिपुत्र बौद्ध परम्परा के जो हीनयान और महायान की अवधारणा का विकास है, कहीं वह सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं और उनका उल्लेख त्रिपिटक साहित्य में उपलब्ध गोपथ और महापथ की अवधारणा का विकसित रूप तो नहीं है। है। मंखलिपुत्र, रामपुत्त, अम्बड (अम्बष्ट), संजय (वेलट्ठिपुत्र) आदि आचारांग में महायान शब्द आया है। महाभारत के शान्तिपर्व में भी ऐसे नाम हैं जो स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं और इनके अध्याय ३१० से लेकर ३१८ तक याज्ञवल्क्य के उपदेशों का संकलन इस रूप में उल्लेख जैन और बौद्ध परम्पराओं में हमे स्पष्ट रूप से है। इसमें मुख्य रूप से सांख्य और योग की अवधारणा का प्रतिपादन मिलते हैं। ऋषिभाषित के जिन ऋषियों के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है। ऋषिभाषित के इस अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि की चर्चा है मिलते हैं उन पर विस्तृत चर्चा प्रो०सी०एस०उपासक ने अपने लेख जो कि जैन परम्परा के अनुरूप ही लगती है। वैसे बृहदारण्यक में 'इसिभासियाइ' एण्ड पालि बुद्धिस्ट टेक्स्ट्स् : ए स्टडी' में किया भी याज्ञवल्क्य भिक्षाचर्या का उपदेश देते हैं। फिर भी इतना तो कहा है। यह लेख पं० दलसुखभाई अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है। जा सकता है कि ऋषिभाषित के लेखक ने याज्ञवल्क्य के मूलभूत पार्श्व और वर्द्धमान जैन परम्परा के तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकर के उपदेशों को विकृत नहीं किया है। ऋषिभाषित के २०वें उत्कल नामक रूप में सुस्पष्ट रूप से मान्य हैं। आईक का उल्लेख ऋषिभाषित के अध्याय में भौतिकवाद या चार्वाक दर्शन का प्रतिपादन है। इस अध्याय अतिरिक्त सूत्रकृतांग में है। इसके अतिरिक्त पुष्पशालपुत्र, वल्कलचीरी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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