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________________ जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन : ऋषिभाषित ८५ है वह सिद्ध (सिझंति) होता है, फिर चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय ऋषिभाषित का प्रश्नव्याकरण से पृथक्करण हो, वैश्य हो या शूद्र हो।२८ अत: ऋषिभाषित सुत्तनिपात, उत्तराध्ययन, अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्यों पहले दशवैकालिक की अपेक्षा प्राचीन है। इस प्रकार ऋषिभाषित आचारांग तो उसे प्रश्नव्याकरणदशा में डाला गया और बाद में उसे उससे अलग प्रथम श्रुतस्कन्ध का परवर्ती और शेष सभी अर्धमागधी आगम-साहित्य कर दिया गया? मेरी दृष्टि में पहले तो विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक का पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। इसी प्रकार पालित्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थ उपदेशों का संकलन होने से इसे अपने आगम-साहित्य में स्थान देने सुत्तनिपात की अपेक्षा भी प्राचीन होने से यह सम्पूर्ण पालित्रिपिटक में महावीर की परम्परा के आचार्यों को कोई बाधा प्रतीत नहीं हुई से भी पूर्ववर्ती कहा जा सकता है। होगी, किन्तु जब जैन संघ सुव्यवस्थित हुआ और अपनी एक परम्परा जहाँ तक इसमें वर्णित ऐतिहासिक ऋषियों के उल्लेखों के आधार बन गई तो अन्य परम्पराओं के ऋषियों को आत्मसात् करना उसके पर कालनिर्णय करने का प्रश्न है केवल वज्जीपुत्त को छोड़कर शेष लिए कठिन हो गया। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को सभी ऋषि महावीर और बुद्ध से या तो पूर्ववर्ती हैं या उनके समकालिक हैं। अलग करना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, अपितु एक उद्देश्यपूर्ण पालित्रिपिटक के आधार पर वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) भी बुद्ध के घटना है। यह सम्भव नहीं था कि एक ओर तो सूत्रकृतांग, भगवती२० लघुवयस्क समकालीन ही हैं, वे आनन्द के निकट थे। वज्जीपुत्रीय सम्प्रदाय और उपासकदशांग३१ में मंखलिगोशालक की तथा ज्ञाताधर्म में नारद भी बुद्ध के निर्वाण की प्रथम शताब्दी में ही अस्तित्व में आ गया की आलोचना करते हुए उनके चरित्र के हनन का प्रयत्न किया जाये था। अत: इनका बुद्ध के लघुवयस्क समकालीन होना सिद्ध है। अत: और दूसरी ओर उन्हें अर्हत् ऋषि कहकर उनके उपदेशों को आगम ऐतिहासिक दृष्टि से भी 'ऋषिभाषित' बुद्ध और महावीर के निर्वाण की वचन के रूप में सुरक्षित रखा जाये। ईसा की प्रथम शती तक जैनसंघ प्रथम शताब्दी में ही निर्मित हो गया होगा। यह सम्भव है इसमें बाद की श्रद्धा को टिकाये रखने का प्रश्न प्रमुख बन गया था। नारद, में कुछ परिवर्तन हुआ हो। मेरी दृष्टि में यह इसके रचनाकाल की पूर्व मंखलिगोशालक, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि मानकर उनके सीमा ई०पू० ५वीं शताब्दी और अन्तिम सीमा ई० पू० ३शती के बीच वचनों को तीर्थंकर की आगम वाणी के रूप में स्वीकार करना कठिनहो ही है। अत: यह इससे अधिक परवर्ती नहीं है। मुझे अन्त: और बाह्य गया था, यद्यपि इसे भी जैन आचार्यों का सौजन्य ही कहा जाना चाहिए कि साक्ष्यों में कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं मिला, जो इसे इस कालावधि से परवर्ती उन्होंने ऋषिभाषित को प्रश्नव्याकरण से अलग करके भी प्रकीर्णक ग्रन्थ सिद्ध करे। दार्शनिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसमें के रूप में उसे सुरक्षित रखा। साथ ही उसकी प्रामाणिकता को बनाये रखने न तो जैन सिद्धान्तों का और न बौद्ध सिद्धान्तों का विकसित रूप पाते हैं। के लिए उसे प्रत्येकबुद्धभाषित माना। यद्यपि साम्प्रदायिक अभिनिवेश मात्र पंचास्तिकाय और अष्टविध कर्म का निर्देश है। यह भी सम्भव है ने इतना अवश्य किया कि उसमें उल्लिखित पार्श्व, वर्धमान, मंखलिपुत्र कि ये अवधारणाएँ पार्थापत्यों में प्रचलित रही हों और वहीं से महावीर आदि को आगम में वर्णित उन्हीं व्यक्तित्वों से भिन्न कहा जाने लगा। की परम्परा में ग्रहण की गई हों। परिषह, कषाय आदि की अवधारणाएँ तो प्राचीन ही हैं। ऋषिभाषित के वात्सीयपुत्र, महाकाश्यप, सारिपुत्र ऋषिभाषित के ऋषियों को प्रत्येकबुद्ध क्यों कहा गया? आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेश में भी केवल बौद्ध धर्म के प्राचीन सिद्धान्त, ऋषिभाषित के मूलपाठ में केतलिपुत्र को ऋषि, अंबड (२५) सन्ततिवाद, क्षणिकवाद आदि ही मिलते हैं। अत: बौद्ध दृष्टि से भी को परिव्राजक; पिंग (३२), ऋषिगिरि (३४) एवं श्री गिरि को ब्राह्मण यह जैनागम एवं पालित्रिपिटक से प्राचीन सिद्ध होता है। (माहण) परिव्राजक अर्हत्ऋषि, सारिपुत्र को बुद्ध अर्हत् ऋषि तथा शेष सभी को अर्हत् ऋषि के नाम से सम्बोधित किया गया। उत्कट (उत्कल) ऋषिभाषित की रचना नामक अध्ययन में वक्ता के नाम का उल्लेख ही नहीं है, अत: उसके ऋषिभाषित की रचना के सम्बन्ध में प्रो० शुबिंग एवं अन्य विद्वानों साथ कोई विशेषण होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यद्यपि ऋषिभाषित का मत है कि यह मूलत: पार्श्व की परम्परा में निर्मित हुआ होगा, के अन्त में प्राप्त होनेवाली संग्रहणी गाथा में एवं ऋषिमण्डल क्योंकि उस परम्परा का स्पष्ट प्रभाव प्रथम अध्याय में देखा जाता है में इन सबको प्रत्येकबुद्ध कहा गया है तथा यह भी उल्लेख है कि जहाँ ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक साथ मानकर उसे चातुर्याम इनमें से बीस अरिष्टनेमि के, पन्द्रह पार्श्वनाथ के और शेष महावीर की व्यवस्था के अनुरूप ढाला गया है।२९ पुन: पार्श्व का विस्तृत अध्याय के शासन में हुए। किन्तु यह गाथा परवर्ती है और बाद में जोड़ी भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है। दूसरे इसे पार्श्व की परम्परा का मानने गयी लगती है। मूलपाठ में कहीं भी इनका प्रत्येकबुद्ध के रूप में उल्लेख का एक आधार यह भी है कि पार्श्व की परम्परा अपेक्षाकृत अधिक नहीं है। समवायांग में ऋषिभाषित की चर्चा के प्रसंग में इन्हें मात्र उदार थी। उसकी अन्य परिव्राजक और श्रमण परम्पराओं से आचार- देवलोक से च्युत कहा गया है, प्रत्येकबुद्ध नहीं कहा गया है। यद्यपि व्यवहार आदि में भी अधिक निकटता थी। पार्थापत्यों के महावीर के समवायांग में ही प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का विवरण देते समय संघ में प्रवेश के साथ यह ग्रन्थ महावीर की परम्परा में आया और __ यह कहा गया है कि इसमें स्वसमय और परसमय के प्रवक्ता प्रत्येकबुद्धों उनकी परम्परा में निर्मित दशाओं में प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के विचारों का संकलन है। चूंकि ऋषिभाषित प्रश्नव्याकरण का ही के रूप में सम्मिलित किया गया। एक भाग था। इस प्रकार ऋषिभाषित के ऋषियों को सर्वप्रथम समवायांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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