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________________ रामपुत्त या रामगुप्त : सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में ६९ से यह भी सिद्ध होता है कि बाहिय या बाहिक पूर्व में स्वतन्त्र रूप से साधना करता था। बाद में उसने बुद्ध से दीक्षा ग्रहण कर अर्हत्-पद प्राप्त किया था। चूँकि बाहिक बुद्ध का समकालीन था, अत: बाहिक से थोड़े पूर्ववर्ती रामपुत्त थे। पुनः रामगुत्त, बाहुक, देवल, द्वैपायन, पाराशर आदि जैन परम्परा के ऋषि नहीं रहे हैं, यद्यपि नमि के वैराग्य-प्रसङ्ग का उल्लेख उत्तराध्ययन में है। इसिभासियाइं में जिनके विचारों का सङ्कलन हुआ है, उनमें पार्श्व आदि के एक दो अपवादों को छोड़कर शेष सभी ऋषि निर्ग्रन्थ परम्परा (जैन धर्म) से सम्बन्धित नहीं हैं। इसिभासियाई और सूत्रकृताङ्ग दोनों से ही रामगुत्त (रामपुत्त) का अजैन होना ही सिद्ध होता है, न कि जैन। जबकि समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त स्पष्ट रूप से एक जैन धर्मावलम्बी नरेश है। सम्भवत: डॉ० भागचन्द्र अपने पक्ष की सिद्धि इस आधार पर करना चाहें कि सूत्रकृताङ्ग की मूल गाथाओं में "पुत्त' शब्द न होकर "गुत्त" शब्द है और सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने भी उसे रामगुप्त ही कहा है, रामपुत्त नहीं, साथ ही उसे राजर्षि भी कहा गया है, अत: उसे राजा होना चाहिए। किन्तु हमारी दृष्टि से ये तर्क बहुत सबल नहीं हैं। प्रथम तो यह कि राजर्षि विशेषण नमि एवं रामगुप्त (रामपुत्त) दोनों के सम्बन्ध में लागू हो सकता है और यह भी सम्भव है कि नमि के समान रामपुत्त भी कोई राजा रहा हो, जिसने बाद में श्रमण दीक्षा अङ्गीकार कर ली है। पुनः हम यदि चूर्णि की ओर जाते हैं, जो शीलाङ्क के विवरण की पूर्ववर्ती है, उसमें स्पष्ट रूप से 'रामाउत्ते' ऐसा पाठ है, न कि 'रामगुत्ते'। इस आधार पर भी रामपुत्त (रामपुत्र) की अवधारणा सुसङ्गत बैठती है। इसिभासियाइं की भूमिका में भी सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने जो रामगुप्त पाठ दिया है, उसे असङ्गत बताते हुए शुब्रिङ्ग ने 'रामपुत्त' इस पाठ का ही समर्थन किया है। १३ यद्यपि स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार अन्तकृद्ददशा के तीसरे अध्ययन का नाम 'रामगुत्ते' है। किन्तु प्रथम तो वर्तमान अन्तकृद्दशाङ्ग में उपलब्ध अध्ययन इससे भिन्न है, दूसरे यह भी सम्भव है कि किसी समय यह अध्ययन रहा होगा और उसमें रामपत्त से सम्बन्धित विवरण रहा होगा- यहाँ भी टीकाकार की भ्रान्तिवश ही 'पुत्त' के स्थान पर गुत्त हो गया है।४ टीकाकारों ने मूल पाठों में ऐसे परिवर्तन किये हैं। इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत्त (रामगुप्त) समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त न होकर पालि त्रिपिटक साहित्य में एवं इसिभासियाई में उल्लिखित रामपुत्त ही है, जिससे बुद्ध ने ध्यान-प्रक्रिया सीखी थी। संदर्भ १. आहेसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावना तत्थ मंदो विसीयति।। अभुंजिया नमी विदेही रामगुप्ते य भुंजिया बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य । - सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/१-३। Some Ethical Aspects of Mahāyana Buddhism as depicted in the Sūtrakstānga, Page 2 (46 TTC All India Seminar on Early Buddhism and Mahayana--Deptt. of Pali and Buddhist Studies, B.H.U. Nov. 10 13, 1984 में पढ़ा गया था।) भगवतोऽर्हतो चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् ।। जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१, पृ. ५१-५२ तथा सेक्रड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग-२२, प्रस्तावना, पृ. ३१। सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२-३। एते पुव्वं महापुरिसा अहिता इह सम्मता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेयमणुस्सुअ ।। - वही, १/३/४/४। ७. रामपुत्तेण अरहता इसिणं बुइतं। - इसिभासियाई, २३ । ८. ये समणे रामपुत्ते अभिप्पसन्ना।- अङ्गुत्तरनिकाय, ४/१९/७। ९. मज्झिम निकाय, २/४/५; संयुत्तनिकाय, ३४/२/५/१०। १०. अथ खो भगवतो एतदहोसि- "कस्स नु खो अहं पठमं धम्म देसेय्यं? को इमं धम्म खिप्पमेव आजानिस्सती' ति? अथ खो भगवतो एतदहोसि- "अयं खो उद्दको रामपुत्तो पण्डितो ब्यत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको; यन्त्रूनाहं उद्दकस्स रामपुत्तस्स पठमं धम्म देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सतीति। अयं खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि- “अभिदोसकालंकतो, भन्ते, उद्दको रामपुत्तोति। भगवतो पिखोआणं उदपादि "अभिदोसकालंकतो उद्दको रामपुत्तो' ति। - महावग्ग, १/६/१०/२। ११. मज्झिमनिकाय, २/४/५; २/५/१०। १२. सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२। १३. Isibhāsiyaim (AJaina Textof Early Period), Indtroduction, p. 4 (L.D. Institute of Indology, Ahmedabad). अंतगड़दसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहानमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य, किंकिमे पल्लए इ य ।।१।। फाले अंबड़पुत्ते य, एमए दस आहिया।। - स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १०/७५५। १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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