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________________ आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्म्स प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन के अनुसार नित्य और निरपवाद वस्तुधर्म ही स्वभाव है। यदि हम इसे कसौटी पर कसे तो संघर्ष एवं तनाव जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है। किन्तु यह एक मिथ्या धारणा है। यदि संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है, संघर्ष मिटाने के लिए होता है। जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं । मानव स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की साधना है, क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए हो रहे हैं। संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं, लेकिन वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनको समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समता की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी मानसिक असंतुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं। अतः आचारांग में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत वासनाशून्य वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही जीवन का आदर्श है क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती हैं, अतः उनसे ऊपर उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व की अवस्था है। वस्तुतः समत्व की उपलब्धि आचारांग और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है और जो जीवन का साध्य एवं स्वभाव हो, वही धर्म कहा जा सकता है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि जो समता को जानता है वही मुनि धर्म को जानता है। आचारांग में अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर ही स्थापित करने का प्रयास किया गया है अहिंसा को अर्हत्-प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाये। सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है (सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला - १।२।३), अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा Jain Education International ६५ को स्थापित किया है। यद्यपि मेकॅजी ने "भय" को अहिंसा का आधार माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं भय को आधार मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात करता है। अतः आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपति जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः अहिंसा को इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ-साथ तुल्यता बोध के बौद्धिक सिद्धान्त पर खड़ा किया गया। वहाँ कहा गया है कि 'जे अज्झत्थं जाणड़ से बहिया जाणइ...एवं तुल्लमन्नेसिं’– १।१।७। जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्या बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। यह प्राणीय पीड़ा की तुल्यता बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास स्वरूप यहाँ तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना चाहता है, वह तू ही है (आचारांग ११५/५) | आगे कहता है कि जो लोग (लोक) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग १।१।३) । यहाँ अहिंसा को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन के आत्मा सम्बन्धी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता सा प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है जब तक दूसरे के प्रति पर बुद्धि है, परायेपन का भाव है, तब तक हिंसा की सम्भावनाएँ उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असम्भव हो सकती है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत हो । अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित थी उसे थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक ओर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा या घृणा से घृणा का निराकरण सम्भव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है-शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा सम्भव है । शान्ति की स्थापना तो अहिंसा या प्रेम द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर कुछ अन्य नहीं है ( आचारांग, है (आचारांग १।३।४ ) 1. " आचारांग में मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व सामान्यतया राग और द्वेष ये दो कर्म-बीज माने गये हैं, किन्तु इनमें भी राग ही प्रमुख तथ्य है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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