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________________ ४४ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ अभी-अभी 'सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध-लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्विक आधारों पर यह सिद्ध किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई०पू० प्रथम शती में या उसके भी कुछ पूर्व हुई होगी।' प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना कहे जाते हैं- चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका । आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ अत्तरिमे- समासहस्सम्मि' या पाठभेद से अट्ठभेद से समासहस्सम्मि के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई० सन् १००८ या १०७८ सिद्ध होता है।" इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में जहाँ ऋषिभाषित ई० पू० पाँचवीं शती की रचना है, वहीं आराध ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रन्य लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारंग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन् की पाँचवी शती के पूर्व की रचनाएँ की रचनाएँ हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित 'पइण्णयसुत्ताई' में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती है, किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर के आगम अन्यों में भी पायी जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ है, अतः फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्व रचित है। तंदुलवैचारिक का उल्लेख दशवैकालिक की प्राचीन अगस्त्य सिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है। ༣༠ दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं। इसी प्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती आराधना में मिलती है। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार एवं भगवती आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती आराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठीं शती से परवर्ती नहीं हैं। यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएँ इन यापनीय / अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं १. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति Jain Education International की रचना के पश्चात् लगभग पाँचवीं छठी शती में अस्तित्व में आया है। चूँकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के बाद की रचनाएँ हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमांधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं । २. मूलाचार में संक्षिप्तप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रन्थों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है। कि ये ग्रन्थ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है। ३. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाएँ समान रूप से मिलती हैं। वर्ण्य विषय की समानता होते हुए भी भगवती - आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रन्थ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे, अतः वे आकार में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि लेखन परम्परा के विकसित होने के पश्चात् विशालकाय ग्रन्थ निर्मित होने लगे। मूलाचार और भगवती आराधना दोनों विशाल ग्रन्थ हैं, अतः वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रन्थ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पाँचवीं शती पूर्व के हैं। प्रकीर्णकों में ज्योतिष्करण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें भ्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलताहै। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में विस्तार से विवेचन है, उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है। इसमें कर्त्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ है । पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति साहित्य में भी उपलब्ध होता है ( लगभग ईसा की प्रथम शती)। इससे यही फलित होता है कि ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है। अंगबाह्य . आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, एक प्राचीन ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण है, वह ईस्वी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी इसे प्राचीन ग्रन्थ सिद्ध करती है। अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ तृतीय शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि अध्ययन, चतुःशरण, भक्तपरिशा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते हैं, वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि तक व्याप्त है। प्रकीर्णकों के रचयिता प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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