SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ किन्तु इसके लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् स्कंदिल और आर्य नागार्जुन उपलब्ध है, उसमें अर्द्धमागधी का सर्वाधिक प्रतिशत इसी ग्रन्थ में की अध्ययक्षता में क्रमश: मथुरा व वलभी में वाचनाएँ हुई। सम्भव पाया जाता है। है कि मथुरा में हुई इस वाचना में अर्द्धमागधी आगमों पर व्यापक जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्द्धमागधी तथा शौरसेनी रूप से शौरसेनी का प्रभाव आया होगा। वलभी के वाचना वाले आगमों ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर में नागार्जुनीय पाठों के तो उल्लेख मिलते हैं, किन्तु स्कंदिल की वाचना अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुत: इन ग्रन्थों में हुए भाषिक के पाठ भेदों का कोई निर्देश नहीं है। स्कंदिल की वाचना सम्बन्धी परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, पाठभेदों का यह अनुल्लेख विचारणीय है। नन्दीसूत्र में स्कंदिल के जिन पर हम क्रमश: विचार करेंगे। सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उनके अनुयोग (आगम-पाठ) ही दक्षिण १. भारत में जहाँ वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र मानकर भारत क्षेत्र में आज भी प्रचलित हैं। सम्भवत: यह संकेत यापनीय उनके स्वर-व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने आगमों के सम्बन्ध में होगा। यापनीय परम्परा जिन आगमों को मान्य पर अधिक बल दिया गया, उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण कर रही थी, उसमें व्यापक रूप से भाषिक परिवर्तन किया गया था रही और अर्थ गौण। आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो और उन्हें शौरसेनी रूप दे दिया गया था। यद्यपि आज प्रमाण के वेद मंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, अभाव में निश्चित रूप से यह बता पाना कठिन है कि यापनीय आगमों किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्द की भाषा का स्वरूप क्या था, क्योकि यापनीयों द्वारा मान्य और रूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना व्याख्यायित वे आगम उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि अपराजित के द्वारा गया कि तीर्थङ्कर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप दशवैकालिक पर टीका लिखे जाने का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। जैनाचार्यों के लिये कथन वह टीका भी आज प्राप्त नहीं है। अत: यह कहना तो कठिन है कि का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। यापनीय आगमों की भाषा कितनी अर्द्धमागधी थी और कितनी शौरसेनी। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाय, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना किन्तु इतना तय है कि यापनीयों ने अपने ग्रन्थों में आगमों, प्रकीर्णकों चाहिये, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द रूपों की उनकी एवं नियुक्तियों की जिन गाथाओं को गृहीत किया है अथवा उद्धृत इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते किया है वे सभी आज शौरसेनी रूपों में ही पायी जाती हैं। यद्यपि गये। आज भी उन पर बहुत कुछ अर्द्धमागधी का प्रभाव शेष रह गया है। २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उसका दूसरा चाहे यापनीयों ने सम्पूर्ण आगमों के भाषायी स्वरूप को अर्द्धमागधी कारण यह था कि जैनभिक्षु-संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित से शौरसेनी में रूपान्तरित किया हो या नहीं, किन्तु उन्होंने आगम थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी साहित्य से जो गाथाएँ उद्धृत की हैं, वे अधिकांशत: आज अपने शौरसेनी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलत: आगम साहित्य स्वरूप में पायी जाती हैं। यापनीय आगमों के भाषिक स्वरूप में यह के भाषिक स्वरूप में भिन्नता आ गयी। परिवर्तन जानबूझकर किया गया या जब मथुरा जैनधर्म का केन्द्र बना ३. जैनभिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी भ्रमणशीलता तब सहज रूप में यह परिवर्तन आ गया था, यह कहना कठिन है। के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों जैनधर्म सदैव से क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाता रहा और यही कारण का प्रभाव पड़ता ही है। फलत: आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हो सकता है कि श्रुतपरम्परा से चली आयी इन गाथाओं में या तो या मिश्रण हो गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी सहज ही क्षेत्रीय प्रभाव आया हो या फिर उस क्षेत्र की भाषा को ध्यान प्रदेशों में अधिक विहार करता है तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम में रखकर उसे उस रूप में परिवर्तित किया गया हो। दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है। अत: भाषिक स्वरूप यह भी सत्य है कि वलभी में जो देवर्धिगणि की अध्यक्षता में की एकरूपता समाप्त हो जाती है। वी.नि.सं. ९८० या ९९३ में अन्तिम वाचना हुई, उसमें क्षेत्रगत महाराष्ट्री ४. सामान्यतया बुद्धवचन बुद्ध निर्वाण के २००-३०० वर्ष के प्राकृत का प्रभाव जैन आगमों पर विशेषरूप से आया होगा, यही अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अत: उनके भाषिक स्वरूप कारण है कि वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य अर्द्धमागधी आगमों की भाषा में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि का जो स्वरूप उपलब्ध है, उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव ही अधिक उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही और वह आज है। अर्द्धमागधी आगमों में भी उन आगमों की भाषा महाराष्ट्री से अधिक भी है। थाई, बर्मा और श्रीलंका के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण प्रभावित हुई है, जो अधिक व्यवहार या प्रचलन में रहे। उदाहरण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता के रूप में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगम है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घ महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हैं। जबकि ऋषिभाषित जैसा आगम काल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरुशिष्य परम्परा से महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहा है। उस पर महाराष्ट्री प्राकृत मौखिक ही चलता रहा, फलतः देशकालगत उच्चारण भेद से उनके का प्रभाव अत्यल्प है। आज अर्द्धमागधी का जो आगम साहित्य हमें भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy