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________________ १८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आगमों में पाठभेद एवं प्रक्षेप हैं, क्योंकि इनके कारण अनेक यापनीय ग्रन्थों का यापनीय स्वरूप विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना भेद भी माना ही विकृत हो गया है। हमारे दिगम्बर विद्वान् श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्रक्षेपण गया है। यह कहा जाता है कि महावीर के ग्यारह गणधरों की नौ की बात तो कहते हैं, किन्तु वे इस बात को विस्मृत कर जाते हैं वाचनाएँ थीं अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था क्योंकि कि स्वयं उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेरप्रत्येक वाचनाचार्य की अध्यापन शैली भिन्न होती थी। ज्ञातव्य है कि फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर जैन परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थङ्कर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहूँगा। को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान पं० कैलाशचन्द्रजी स्व-सम्पादित "भगवती आराधना" की थी। यही कारण है कि जैनों ने यह माना कि चाहे शब्द-भेद हो, पर प्रस्तावना (पृ० ९) में लिखते हैं—“विजयोदया के अध्ययन से प्रकट अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि वाचना भेद बढ़ते गये। होता है कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित हमें यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों से वर्तमान आगमों था, उसमें और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है। अनेक गाथाओं के पाठों का जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है,अर्थ- में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं में हैं।" भेद नहीं, क्योंकि ऐसे अनुपलब्ध अंशों या पाठभेदों में विषय-प्रतिपादन इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। किन्तु इस सम्भावना से पूरी ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के तरह इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयं यापनीयों ने भी अपनी शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा। यदि पं० कैलाशचन्द्रजी ने उन मान्यता की पुष्टि के लिए कुछ अंश जोड़े हों अथवा परिवर्तित किये सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता हों। श्वेताम्बर परम्परा में भी वल्लभी वाचना में या उसके पश्चात् भी तो सम्भवतः हम अधिक प्रामाणिकता से कुछ बात कह सकते थे। आगमों में कुछ अंश जुड़ते रहे हैं--इस तथ्य से इन्कार नहीं किया टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं जा सकता। हम पण्डित कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास पाये हैं। अत: अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष पूर्वपीठिका, पृ० ५२७) के इस कथन से सहमत हैं कि वल्लभी वाचना करेंगे। स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की के समय और उसके बाद भी आगमों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन छेड़-छाड़ हुई थी। इस सन्दर्भ में पं० नाथूरामजी प्रेमी (जैन साहित्य हुए हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त "बहुत" शब्द आपत्तिजनक है। और इतिहास,पृ० २०२) लिखते हैं- "इसमें तो संदेह नहीं है कि फिर भी ध्यान रखना होगा कि इनमें प्रक्षेप ही अधिक हुआ है, विस्मृति इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है, परन्तु को छोड़कर जान-बूझकर निकाला कुछ नहीं गया है। यह कितना है यह निर्णय करना कठिन है। बहुत कुछ सोच-विचार किन्तु ऐसा प्रक्षेप मात्र श्वेताम्बरों ने किया है और दिगम्बरों तथा के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ यापनीयों ने नहीं किया है--यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट यापनीय परम्परा ने भी आगमों में अपने अनुकूल कुछ अंश प्रक्षिप्त थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि किये हों। मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों को देखने से ऐसा (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने स्पष्ट लगता है कि उन्होंने अर्धमागधी आगम साहित्य की ही सैकड़ों के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश फट गया गाथाएँ शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करके अपने इन ग्रन्थों की रचना था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँकी है, मूलाचार का लगभग आधा भाग प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं जहाँ जोड़ा, वहाँ-वहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ आगमों की गाथाओं से निर्मित है। यह तो निश्चित है कि प्राचीन आगम दिया। इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं साहित्य अर्धमागधी में था। यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक सन्दर्भ को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया। के सदैव शौरसेनी रूप ही मिलते हैं, जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई हैं कि उन्होंने अर्धमागधी आगम-साहित्य को शौरसेनी में अपने ढंग है। जहाँ "तिलोयपण्णत्ति' का ग्रन्थ-परिमाण ८००० श्लोक बताया से रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया होगा और इस प्रयत्न में उन्होंने गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण ९३४० है अपने मत की पुष्टि का भी प्रयास किया होगा। अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं। पं० नाथूरामजी प्रेमी के अत: इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यापनीय शब्दों में- “ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट आचार्यों ने भी मूल आगमों के साथ छेड़छाड़ की थी और अपने की गयी है।" इस सन्दर्भ में पं० फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन साहित्य मत की पुष्टि हेतु उन्होंने उनमें परिवर्धन और प्रक्षेप भी किये। भास्कर, भाग ११, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णत्ति मात्र श्वेताम्बर और यापनीय ही आगमों के साथ छेड़छाड़ करने और उसके रचनाकार का विचार" नामक लेख के आधार पर वे लिखते के दोषी नहीं हैं, बल्कि दिगम्बर आचार्य और पण्डित भी इस दौड़ हैं- “उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं में पीछे नहीं रहे हैं। यापनीय ग्रन्थों में दिगम्बर परम्परा के द्वारा जो रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त है, प्रक्षेपण और परिवर्तन किये गये हैं वे तो और भी अधिक विचारणीय बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया है, जो मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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