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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श १५ उदाहरण के रूप में आगम पटना अथवा उड़ीसा के कुमारी पर्वत हो। फिर भी देवर्धि को जो आगम परम्परा से प्राप्त थे, उनका और (खण्डगिरि) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी माथुरी वाचना के आगमों का मूलस्रोत तो एक ही था। हो सकता ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित है कि कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा दोनों में क्वचित् किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये। माथुरी वाचना में जो अन्तर आ गये हों। अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से का प्रभाव आ गया था। दुर्भाग्य से आज हमें माथरी वाचना के आगम नितान्त भिन्न थे। उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु इन आगमों के जो उद्धृत अंश उत्तर भारत की अचेल धारा यापनीय-संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में यापनीयों के आगम उद्धृत मिलते हैं, उनमें हम यह पाते हैं कि भावगत समानता के होते यापनीय संघ के आचार्य आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। आचाराङ्ग दशवकालिक, कल्प, निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को उत्तराध्ययन, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना मान्य करते थे। इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यापनीय आचार्यों द्वारा निर्मित से वल्लभी के आगमों से किञ्चित् भिन्न हैं। किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि अङ्गादि-आगम __अत: इन वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन विच्छिन्न हो गये हैं। वे आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक, हुए, अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं। वल्लभी की अन्तिम उत्तराध्ययन, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी वाचना में वल्लभी की ही नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर तो लिये परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धृत करते थे। इस सम्बन्ध में आदरणीय गये, किन्तु माथुरी वाचना के पाठान्तर समाहित नहीं हैं। यद्यपि कुछ पं.नाथूराम प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ९१) का यह कथन विद्वानों की मान्यता है कि वल्लभी की देवर्धि वाचना का आधार माथुरी द्रष्टव्य है- “अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए वाचना के आगम थे और यही कारण था कि उन्होंने नागार्जुनीय वाचना उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त के पाठान्तर दिये हैं। किन्तु मेरा मन्तव्य इससे भिन्न है। मेरी दृष्टि को पुष्ट करते हैं। परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती-आराधना की में उनकी वाचना का आधार भी परम्परा से प्राप्त नागार्जुनीय वाचना विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं है, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही के पूर्व के आगम रहे होंगे, किन्तु जहाँ उन्हें अपनी परम्परागत वाचना आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है।" । का नागार्जुनीय वाचना से मतभेद दिखायी दिया, वहाँ उन्होंने नागार्जुनीय आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय वाचना का उल्लेख कर दिया, क्योंकि माथुरी वाचना स्पष्टत: शौरसेनी सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध से प्रभावित थी, दूसरे उस वाचना के आगमों के जो भी अवतरण होते हैं। मूलाचार (५/८०-८२) में चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का आज मिलते हैं उनमें कुछ वर्तमान आगमों की वाचना से मेल नहीं उल्लेख है- १ गणधर कथित, २. प्रत्येकबुद्ध कथित, ३. श्रुतकेवलि खाते हैं। उनसे यही फलित होता है कि देवर्धि की वाचना का आधार कथित और ४. अभिन्न दशपूर्वी कथित। स्कंदिल की वाचना तो नहीं रही है। तीसरे माथुरी वाचना के अवतरण इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों आज यापनीय ग्रन्थों में मिलते हैं, उनसे इतना तो फलित होता है अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका कि माथी वाचना के आगमों में भी वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एवं स्त्री की स्वाध्याय करना वर्जित है, किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ तद्भव मुक्ति के उल्लेख तो थे, किन्तु उनमें अचेलता को उत्सर्ग मार्ग हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता है, जैसे---आराधना माना गया था। यापनीय ग्रन्थों में उद्धृत, अचेलपक्ष के सम्पोषक कुछ (भगवती आराधना या आराधनापताका), नियुक्ति , मरणविभक्ति, संग्रह अवतरण तो वर्तमान वल्लभी वाचना के आगमों यथा आचाराङ्ग के (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र), स्तुति (देविंदत्थु), प्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण प्रथम श्रुतस्कन्ध आदि में मिलते हैं, किन्तु कुछ अवतरण वर्तमान एवं महापच्चक्खाण), धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ। वाचना में नहीं मिलते हैं। अतः माथुरी वाचना के पाठान्तर वल्लभी यहाँ पर चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं, इसकी पुष्टि होती है। उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाया मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है। उसमें इन ग्रन्थों माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरु-परम्परा से का नाम निर्देश नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय प्राप्त आगम रहे होंगे। मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे। अत: पाठान्तर अपनी वाचना में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा इस प्रसंग में उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित की व्याख्या पूर्णतः भ्रान्त ही एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना है। मात्र यही नहीं, अगली गाथा की टीका में उन्होंने "थुदि" के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु । "पच्चक्खाण" एवं "धम्मकहा" को जिन ग्रन्थों से समीकृत किया दोनों की अपेक्षा भिन्नता अधिक होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया है वह तो और भी अधिक भ्रामक है। आश्चर्य है कि वे "थुदि" से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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