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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप भिन्न थीं। यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद ही अर्धमागधी आगमों में उपलब्ध होता है। के समालोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमश: ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों का समन्वय किया। अत: दर्शन के और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक। सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अत: उनकी शैली इस दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके और विषय-वस्तु दोनों ही अर्धमागधी आगम-साहित्य से भिन्न है। साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा आरण्यकों के सम्बन्ध में मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक पाया हूँ अत: उनसे अर्धमागधी आगम साहित्य की तुलना कर पाना प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है। मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक ___ आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता अध्ययन द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान जा सकता है। होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचाराङ्ग, दोनों के लिए 'शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होता है। हिन्दूधर्म में वेद इसिभासियाई आदि प्राचीन अर्धमागधी आगम-साहित्य में भी यथावत् का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म उपलब्ध होते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, में बाइबिल का और इस्लाम धर्म में कुरान का जो स्थान है, वही उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है। फिर भी आगम साहित्य को उपदेश इसिभासियाई, आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान हैं। इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का सङ्कलन है, जिन्होंने उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। हैं। प्रस्तुत प्रसङ्ग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत जनो के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन करना सम्भव नहीं है। इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों ___ और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर को अपनी इसिभासियाई की भूमिका एवं 'जैन, बौद्ध और गीता के सम्प्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' खण्ड १ एवं २ देखने की क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता है। जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हों या उनमें कुछ पालित्रिपिटक और जैनागम परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव-स्रोत की अपेक्षा से दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं। उनकी पूर्णत: समकालिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान् अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान महावीर समकालिक ही हैं। इसलिए मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामयिक है। दूसरे ई०पू० पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवीं शती अर्थात् लगभग जैन-परम्परा और बौद्ध-परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी के अङ्ग हैं अत: दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है। इस तथ्य कह देते हैं। की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन से हो जाती है। दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन-दृष्टि अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत प्रयत्न किये गये हैं, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं किया जाता हैके साहित्य में समानता है। उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती ११ अङ्ग हैं। किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार नियमों का प्रश्न है, १. आयार (आचाराङ्गः), २. सूयगड (सूत्रकृताङ्गः), ३. ठाण वहाँ स्पष्ट अन्तर भी देखा जाता है। क्योंकि जहाँ भगवान् बुद्ध आचार (स्थानाङ्गः), ४. समवाय (समवायाङ्गः), ५.वियाहपत्रत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्तिः के क्षेत्र में मध्यममार्गी थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तितीक्षा पर या भगवती), ६. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा:), ७. उवासगदसाओ अधिक बल दे रहे थे। इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ (उपासकदशा:), ८. अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशा:), ९. अनुत्तरोववाइय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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