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________________ ७८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ की वाणी हैं तो आगमों और विशेष रूप से अङ्गआगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुये गणों के उल्लेख क्यों हैं ? यदि कहाजाये कि भगवान् सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह है कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था, वह भूतकाल में क्यों कहा गया? क्या भगवती में गोशालक के प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान् महावीर की वाणी हो सकती है ? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक-दशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लिखित है ? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं।" भगवान् महावीर की निर्वाण तिथि निर्धारण के सन्दर्भ में अभिलेखीय साक्ष्यों को प्रस्तुत करते हुये प्रोफेसर जैन ने जो विचार प्रकट किये हैं वे भी मननीय हैं। अन्त में मैं मात्र इतना ही कहना पर्याप्त समझता हूँ कि प्रोफेसर सागरमल जैन की चिन्तन पूर्ण, किन्तु अनाग्रही और असाम्प्रदायिक दृष्टि निश्चय ही उनके व्यक्तित्व के अनुरूप है ।उनकी दृष्टि दूरगामी और लक्ष्य का भेदन करने वाली है । अत: उनके इस दृष्टिकोण से देश और · समाज को लाभ लेना चाहिए। प्राध्यापक, जैनदर्शन, संस्कृतिविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, काशी हिन्दू विश्वद्यिालय, वाराणसी । सागर जैन विद्या-भारती : भाग-२ समीक्षक-प्रो० सदुर्शन लाल जैन डॉ० सागरमल जैन एक स्वतन्त्र-विचारक एवं लेखक हैं । आप सम्प्रदायगत अवधारणाओं को कसौटी पर कसे बिना स्वीकार नहीं करते हैं। इसीलिए आपने स्वकीय सम्प्रदाय की कतिपय स्थानों पर तीखी आलोचना भी की है । परन्तु आगमों की प्राचीनता को लेकर आपका झुकाव दिगम्बर आगम ग्रन्थों की अपेक्षा श्वेताम्बर आगमों की ओर अधिक है । आपके शोध का विषय 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन रहा है । परिणामस्वरूप आपके चिन्तन एवं लेखन में गीता, बौद्ध एवं जैन संस्कृतियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। 'ऋषिभाषित' नामक जैन आगम ग्रन्थ का आपने समीक्षात्मक अध्ययन करके कई नये तथ्यों का उद्घाटन किया है। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर जैन आगमों तथा जैन दार्शनिक ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन के साथ आधुनिक चिन्तकों का भी आपने अच्छा अध्ययन किया है। भाषा शैली में सरलतास्पष्टता तथा तर्कशीलता है। छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थों के अतिरिक्त शताधिक शोध निबन्ध आपके छप चुके हैं। कई शोध छात्र आपके निर्देशन में शोध उपाधियाँ भी प्राप्त कर चुके हैं। आपने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन कार्य किया है इन सबसे आपके सागरसम ध पाण्डित्य की अमिट छाप विद्वज्जगत् पर पड़ी है। ये अपने पाण्डित्य से न केवल विद्वानों को आकर्षित करते हैं अपितु अपने सरल एवं परम-कारुणिक स्वभाव से जनसामान्य को भी आकृष्ट करते हैं। वर्तमान में आप पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मानद् निदेशक हैं। आपकी वाणी जन-जन तक पहुँचे इस भावना से प्रेरित होकर पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी के विद्या प्रेमी सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जैन जी ने इनके लेखों को एकत्र संकलित करके 'सागर जैन विद्या भारती के नाम से दस खण्डों में प्रकाशित करने की योजना तैयार की जिसके तीन खण्ड (भाग) प्रकाशित हो चुके हैं । समालोच्य 'सागर जैन विद्या भारती' का द्वितीय भाग अपने इस ग्रन्थ रूप के साथ-साथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित होने वाली 'श्रमण' पत्रिका में छपा है । पत्रिका एवं ग्रन्थ दोनों ही प्रयोजन हेतु साथ-साथ छपने से कमियाँ समालोच्य ग्रन्थ के सम्पादन में कुछ कमियां रह गयी। अन्तिम सात पृष्ठ 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ' की नये प्रकाशन शीर्षक से छपे हैं, जिनमें विद्यापीठ के दस प्रकाशनों की समीक्षा दी गयी है। इस भाग में ग्यारह लेखों का संकलन है, जिनका प्रकाशन अन्यत्र भी हुआ है । अन्तिम ग्यारहवाँ डॉ० सागरमल जैन तथा उनके शोधछात्र डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त दोनों के संयुक्त कृतित्व के रूप में हैं। शेष दस लेख डॉ० सागरमल जैन के लेखनी से प्रसूत हैं। इन लेखों की *प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्यापीठ मूल्य, १९९५ - रु. १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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