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________________ 0 कमला जैन 'जीजी' एम. ए. [अनेक पुस्तकों की संपादिका, कवियित्री ] गिक ज्योतिर्धर प्राचार्य श्री प्रानन्दऋषि : जीवन-दर्शन भगवान महावीर ने कहा है, जैसे उदय होता हुआ सूर्य अंधकार का नाश कर सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार ज्ञानी साधक भी अपने दिव्य ज्ञानालोक से संसार को प्रभास्वर बनाता रहता है। यही बात दूसरे शब्दों में आचार्य भद्रबाहु ने कही है-दीव समा आयरिया आचार्य दीपक के समान हैं, वे ज्योति के प्रतीप्त पुंज हैं। उक्त दोनों सूक्तियाँ हमारे श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य श्री के जीवन में यथार्थ होती हैं। हम यहाँ शाब्दिक संस्तुति से नहीं किन्तु आचार्यप्रवर के जीवन-दर्शन से ही इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं । पढ़िए उनके गौरवमय जीवन की एक सरल-विरल भव्य झाँकी। आचार्यश्री का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के चिचोड़ी (शिराल) नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री देवीचन्द्र जी गूगलिया एवं माता का नाम हुलासाबाई था। दोनों ही अत्यन्त धर्मपरायण एवं सदाचारी थे। इस पुण्यात्मा दम्पति का छोटा-सा परिवार था। दो पुत्र एवं एक पुत्री। बड़े पुत्र उत्तमचन्द्र और छोटे नेमिचन्द्र, जो कि आज स्वनामधन्य श्री आनन्दऋषि जी के नाम से पुकारे जाते हैं तथा श्रमण संघ के आचार्यपद को सुशोभित कर रहे हैं। आपने बाल्यकाल में ही "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" कहावत को चरितार्थ कर दिया था। क्योंकि प्रारम्भ से ही आपका जीवन अनेक विलक्षणताओं से परिपूर्ण था तथा आपकी प्रत्येक चेष्टा अन्य सामान्य बालकों से भिन्न एवं निराली थी। जो भी बालक नेमिचन्द्र को देखता, दाँतों तले अंगुली दबाकर रह जाता था। क्योंकि जिस लघुवय में सामान्य बालक नाना प्रकार की बाल-क्रीड़ाओं में तथा विभिन्न प्रकार के आमोद-प्रमोद एवं खेल-तमाशों में रत रहता है, उस सुनहरे शैशवकाल में श्री नेमिचन्द्र संतसमागम, भजन-कीर्तन तथा प्रवचन-श्रवण आदि में रुचि रखते थे। बालक समझकर इन्हें अनेक बार धर्म-स्थलों से निकाल भी दिया जाता था, किन्तु अपनी उत्कट रुचि एवं तीव्र लगन के कारण ये किसी-नकिसी प्रकार वहाँ पहुँच ही जाते तथा बालयोगी के समान तन्मय, अडिग एवं गंभीर रहकर अथ से इति तक धर्म-लाभ लेते। बालभक्त नेमिचन्द्र स्वयं भी विलक्षण गायक थे। जब लोगों को आपके कंठ की मधुरता और मन्त्रमुग्ध कर देने वाली अद्भुत क्षमता का पता चला तो धार्मिक-आयोजनों से उन्हें निकाल देने वाले व्यक्ति ही उन्हें आग्रहपूर्वक निमन्त्रण देकर अपने आयोजनों की शोभा बढ़ाने के लिए बुलाते थे। परिणाम यह होता था कि उन आयोजनों में चार चाँद लग जाते थे और भक्ति के साथ-साथ माधुर्य का स्रोत बह निकलता था। MP Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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