SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 748
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष मानामा on संयम साधना एवं विद्वता से जनता को धार्मिकता का संदेश दे रही हैं। आपके समान ही आपकी शिष्याएँ भी विद्वान और प्रभावशाली हैं। विदुषीरत्न प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकंवर जी म० आप अपनी मातुश्री चंचल बहिन (महासती श्री चन्दनबाला जी म०) के साथ-साथ दीक्षित हुई थीं । सुशिक्षिता माता की सुपुत्री होने एवं बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि होने के कारण आपने अच्छा अध्ययन किया। दीक्षित होने के पश्चात आपका अध्ययन निरन्तर विकसित होता रहा और न्याय, व्याकरण, तत्वज्ञान आदि विविध विषयों एवं जैन आगमों का गम्भीर अध्ययन किया। पाँच भाषाओं का पूर्णतया ज्ञान है । अंग्रेजी में तो आप धाराप्रवाह बोलती हैं। रवीन्द्र साहित्य का खूब पर्यालोचन किया है। आपकी विद्वत्ता से आबालवृद्ध प्रभावित हैं। समग्र जैन समाज के साध्वी वर्ग में ही क्या, किन्तु श्रमणवर्ग में भी आप जैसी विदूषी प्रतिभाशालिनी एवं प्रवचनकुशल प्रतिभाएँ विरल ही हैं। सं० १९६६ फागुन शुक्ला ५ को खामगाँव में आपको प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया गया। आपका विहार क्षेत्र प्रायः दक्षिण रहा है। आजकल स्वास्थ्य अनुकुल न होने से अहमदनगर धोड़नदी आदि क्षेत्रों में प्रायः विचरती हैं। आपकी शिष्याएं भी विदुषी और अनेक भाषाओं में प्रवीण हैं। जो दूर-दूर क्षेत्रों में धर्म प्रचार कर रही हैं। पूर्वोक्त साध्बी वृन्द के अतिरिक्त अन्य अनेक महान् भाग्यशालिनी महासतियाँ ऋषि सम्प्रदाय की गौरव-गरिमा को उज्ज्वल बना रही हैं । सभी अपनी संयम साधना और विद्वता से जिन शासन की सेवा में संलग्न हैं । स्थानाभाव से यहाँ उन सबका परिचय देना शक्य नहीं है। अत: पाठकगण क्षमा करेंगे। उपसंहार पूर्व में ऋषि सम्प्रदाय के कतिपय महाभाग सन्तों और सतियों के परिचय की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। उस परिचय में अधूरापन भी रहा होगा । लेकिन इतना तो मानना ही होगा कि ऋषि । सम्प्रदाय के सन्त एवं सतियों ने भगवान महावीर के शासन की प्रभावना को चारों दिशाओं में व्याप्त किया है। ___ इसके साथ ही ऋषि सम्प्रदाय की सबसे बड़ी देन है-शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति । साध्वाचार के विपरीत होने वाली प्रवृत्तियों के उन्मूलन के लिए क्रान्तिवीर लोंकाशाह ने जो शंखनाद किया था, उसको पूज्य श्री लवजी ऋषि जी म० जैसे महापुरुषों ने अनेक परिषहों को सहन करते हुए सुरक्षित रखा और इन पाँच सौ वर्षों में उसे जन-जन के मानस में प्रतिष्ठित कर दिया है। ऋषि सम्प्रदाय के सन्तों का विहार भारत के कोने-कोने में हुआ है। प्रारम्भ में तो गुजरातकाठियावाड़ ही इस सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र रहा, लेकिन उसके बाद पूज्य श्री सोमजी ऋषि जी म० की आज्ञा से पं० श्री हरदास जी म० ने पंजाब में, पूज्य श्री कहान जी ऋषि जी म० ने मालवा में, पू० श्री तिलोक ऋषि जी म. ने महाराष्ट्र में, पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी म. ने कर्णाटक में, पूज्य श्री देवजी AAD गया بعث مع مدافع ع आचार्यप्रवभिनआचार्यप्रवभिनी श्रीआनन्दपाश्राआडन्ट 14 ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy