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________________ ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष २३१ A SIL VUL महासती श्री हीरा जी म. आप ऋषि सम्प्रदाय की सती मंडल में हीरे के समान प्रभावशाली और दीप्तिमान उज्ज्वल हैं । आपका जन्म-स्थान रतलाम और पिता का नाम श्री दुलीचन्द जी सुराना और माता का नाम नानूबाई था । बाल्यावस्था में आपकी सगाई हो चुकी थी। माताजी को दीक्षा लेने के लिए प्रवृत्त देकर आप भी दीक्षा लेने को तैयार हई । परिवार वालों की ओर से प्रलोभन दिये जाने पर भी आप विचलित नहीं हई। अच्छा शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। सं० १९३५ में जावरा चातुमांस पूर्ण कर जब पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म० दक्षिण की ओर पधारे, तब आपने भी दक्षिण में विचरने के लिए प्रस्थान किया। सं० १९४० में पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी म. का देवलोक हो जाने पर आपकी प्रेरणा से पूज्य श्री रत्नऋषि जी म. ज्ञानाभ्यास के लिए मालवा में पधारे और अल्पवय में ही पूज्यश्री अच्छे शास्त्रज्ञाता और विद्धान बने । आपकी १३ शिष्याएँ हुई। ऋषि सम्प्रदाय के विकास में आपका योगदान सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जायेगा। प्रतिनी श्री सिरेकंवर जी म. आपका जन्म सं० १९३५ में येवला निवासी श्री रामचन्द जी की धर्मपत्नी श्रीमती सेरुबाई को कुक्षि से हुआ था। आप राहुरी निवासी श्री ताराचन्द जी बाफणा के साथ विवाहित भी हई किन्तु सौभाग्य अल्पकाल का रहा। आपने सं० १६५४ आषाढ़ कृष्णा ४ को पूज्य श्री रत्नऋषि जी म. से मागवती दीक्षा अंगीकार की। आप प्रकृति से भद्र और विदुषी थीं। सं० १९६१ चैत्र कृष्णा ७ को पूना में आयोजित ऋषि सम्प्रदाय के सती सम्मेलन में आपको प्रवर्तिनी पद से अंलकृत किया गया था। अधिकतर आपका विहार दक्षिण में हुआ। सं० २०२१ में आपका घोड़नदी में स्वर्गवास हो गया। पंडिता प्र. श्री सायरकंवर जी म० जेतारण (मारवाड़) निवासी श्री कुन्दनमल जी बोहरा की धर्मपत्नी श्री श्रेयकंवरजी की कुक्षि से सं० १९५८ कार्तिक वदी १३ को आपका जन्म हुआ था। सिकन्द्रबाद निवासी श्री सुगालचन्द जी मकाना के साथ आपका विवाह हुआ। गृहस्थ जीवन में आपकी प्रकृति विशेषतया धर्म की ओर झुकी हुई रही। सं० १६८१ फागुन कृष्णा २ को मिरी में पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी म० के मुखारविन्द से ३२ वर्ष की उम्र में आपने दीक्षा ग्रहण की और तपस्विनी जी महासती श्री नन्दू जी म० की नेश्राय में शिष्या हुई। आपकी धारणा शक्ति अच्छी थी । अत: अल्पकाल में अनेक सूत्र, थाकड़ कंठस्थ कर लिए । ज्ञान चर्चा में विशेष रुचि रखती थीं। प्रभावक व्यक्तित्व के कारण अनेक कुव्यसनियों को कुव्यसनों से मुक्त कराया। आपका अधिकतर विहार दक्षिण और मद्रास प्रान्त में हुआ, वहाँ आपके सदुपदेश से अनेक धार्मिक संस्थाएँ स्थापित हुई। HANDE AamarindianAAWAJALRA..LA...AURA श्रीआनन्द अन्य-श्रीआनन्द Yoxvimaravvyurm... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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