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________________ आचार्य प्रव Mill STY so २२८ AAAAAAAA आचार्य प्रव काही 232 इतिहास और संस्कृति अहमदनगर चातुर्मास में श्री संघ को संकेत किया और जैन ज्ञान फंड की स्थापना की गई ! पश्चात सं० १६८० में श्री तिलोक जैन पाठशाला की पाथर्डी में स्थापना हुई जो आज हाईस्कूल के रूप में चल रही है । अंधश्रद्धा के उन्मूलन के लिए तो आपने प्रत्येक क्षेत्र में प्रयत्न किया । इसका परिणाम यह हुआ कि जैनत्व के संस्कारों का दिनोंदिन विकास होता गया और अनेक स्थानों पर शिक्षण शालाएँ, स्वधर्मी फंड आदि स्थापित हुए । अभिनन्दन पाथर्डी में आज जो भी संस्थाएँ चल रही हैं या नवीन स्थापित हुई हैं, उन सब के मूल में आपकी प्रेरणा, आशीर्वाद रहे हैं । ये सभी संस्थाएं जनता में सद्धर्म का प्रसार कर जैनत्व की कीर्ति को व्यापक बना रही हैं । Jain Education International महाराष्ट्र में आज स्थानकवासी जैन समाज में जो साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना है, शिक्षा क्षेत्र में जो प्रगति हो रही है उसका श्रेय यदि किसी को दिया जाना है तो वह श्री पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी म० को ही मिलेगा । आपके हाथों में श्रमण संघ के वर्तमान ज्योतिर्धर आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषिजी म० का जीवन पुष्प खिला है, इस महिमाशाली व्यक्तित्व का निर्माण इन्हीं हाथों ने किया है जो आपकी कीर्ति का जीता-जागता प्रमाण है । आप श्री ने श्रावकों को सुसंस्कृत बनाने के साथ-साथ सन्तों को भी योग्य विद्वान बनाने की ओर ध्यान दिया । योग्य विद्वानों का सहयोग लेकर अपने शिष्यों को शिक्षा दिलाई। उन्हें तात्विक ज्ञान के साथ प्राच्य भाषाओं में भी निपुण बनाने की ओर ध्यान दिया । सं० १९८३ का चातुर्मास भुसावल में हुआ । निकटवर्ती क्षेत्रों में विहार करते हुए हिंगनघाट की ओर पधारे । रास्ते में कानगाँव के निकट आपको साधारण सा बुखार हो गया, दूसरे दिन अलीपुर ग्राम में दाहज्वर हो गया । परिस्थितियों को देखकर आपने वहीं एक मन्दिर में सागारी संथारा कर लिया और सं० १९८४ जेष्ठ कृष्णा ७ के मध्याह्न इस नश्वर देह का परित्याग कर दिया । पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज आप श्री का परिचय सर्व विश्रुत है । आपकी विद्वता, ज्ञानगरिमा और संयमसाधना से समग्र जैन शासन गौरवान्वित है । संक्षेप आपके परिचय के लिये इतना ही कहा जा सकता है कि पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी म०, पूज्यपाद श्री अमोलक ऋषिजी म०, पूज्यपाद श्री रत्न ऋषिजी म० इन तीनों महापुरुषों के सभी गुण आप में पुंजीभूत होकर साकार हो रहे हैं । आपने चतुविध संघ की उन्नति में जो योगदान दिया और इस वृद्धावस्था में भी उत्साहपूर्वक तत्पर हैं, वह एक धर्माचार्य के आदर्श में तो वृद्धि कर ही रहा है, जन साधारण को भी मानव जीवन सफल बनाने का मार्ग बतलाता है । आपश्री at विशेष परिचय अन्यत्र प्रकाशित है अतः कुछ लिखना पुनरावृत्ति मात्र होगा। हाँ, इतना ही कह सकते हैं कि आपने अपने उच्चतर व्यक्तित्व, उत्कृष्ट आचार और विशद् विचारों से जो आदर्श चतुविध संघ के समक्ष रखा है, उसका हम सभी अनुसरण कर स्वपर कल्याण करते रहें और आपश्री दीर्घजीवी होकर हमें मार्ग-दर्शन कराते रहें । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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