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________________ आचार्यप्रवभिन्न मिनापार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दप्रसन्थ श्रीआनन्द iharvawwar . M २२६ इतिहास और संस्कृति जानकर तिलोकचन्द जी को भी संसार से उदासीनता हो गई। इस प्रकार परिवार के तीन सदस्यों को दीक्षा लेने का जानकर आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री कुंवरमल जी ने सोचा कि मुझे इनसे पीछे नहीं रहना चाहिए। ऐसा सुअवसर फिर मिलने वाला नहीं और आप भी दीक्षा लेने को तत्पर हो गये। इस प्रकार एक ही परिवार के चार मुमुक्षुओं के संयम मार्ग को अंगीकार करने की जानकारी से रतलाम संघ में हर्ष छा गया। संघ ने बड़े ही उत्साह से इस मंगल कार्य को पूर्ण करने का निश्चय किया और सं० १६१४ माघ कृ० १ को यह जनेश्वरी दीक्षाएँ सम्पन्न हुई। श्री तिलोकचन्द जी श्री तिलोक ऋषि के नाम से सन्त-मण्डली में विख्यात हो गये। दीक्षा के समय आपकी उम्र दश वर्ष की थी। प्रतिभा विलक्षण होने से करीब १८ वर्ष की उम्र तक आते-आते आपने अनेक आगम कंठस्थ कर लिए एवं संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषाओं में निपुणता प्राप्त कर ली। सं० १९२२ में आपके गुरुदेव श्री अयवंता ऋषि जी म. के देहावसान से आपको मार्मिक ब्यथा हई, लेकिन संसार के स्वरूप से परिचित थे अत: और अधिक गम्भीरता से ज्ञानाभ्यास में लीन हो गये। मालव प्रदेश के विभिन्न नगरों और ग्रामों में धर्म प्रभावना करते हुए सं० १९३५ में दक्षिण प्रान्त में पधारने की विनती के कारण आपने ठा० ३ से दक्षिण की ओर विहार किया और चैत्र वदी १ को आप घोड़नदी पधार गये। दक्षिण प्रान्त में जैन सन्तों के पदार्पण का यह वर्तमान युग में प्रथम अवसर था। उधर के श्री संघों में अपूर्व आनन्द और उत्साह व्याप्त हो रहा था। अहमदनगर की धर्मशीला बहिन श्रीमती रम्भाबाई पीतलिया ने पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषि जी म० के अहमदनगर पधारने की सूचना देने वाले भाई को तो अपना सोने का कड़ा ही बधाई में दे दिया था। सं० १९४० का चातुर्मास अहमदनगर में था । स्वास्थ्य सब प्रकार से अनुकूल था। लेकिन अकस्मात स्वास्थ्य गड़बड़ हो गया और श्रावण कृष्णा २ को आप कालधर्म को प्राप्त हो गये । इस थोड़े से समय में आपने समाज, साहित्य और आचार-विचार, सिद्धान्त के क्षेत्र में जो भी कार्य किये, उनका इतिहास की दृष्टि से मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है । पूज्यपाद रचित साहित्य अनूठा है । बहुत से ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं, फिर भी अनेक ग्रन्थ अप्रकाशित हैं। कवित्व शक्ति तो आपकी अनूठी ही थी जिसकी 'कहत तिलोक रिख' धुन जन साधारण की वाणी द्वारा बार-बार गूंज उठती है। 'ज्ञानकुजर' और 'चित्रालंकार' काव्य तो आपकी विद्वत्ता, कवित्व प्रतिभा के अनूठे ही ग्रन्थ हैं। कवि के अलावा आप सुलेखक थे । दशवकालिक सूत्र पूर्ण एक पन्ने में एवं डेढ़ इन्च जगह में पूरी आनुपूर्वी लिखकर आपने अपनी लेखन-कला की पराकाष्ठा का परिचय दिया है। आप द्वारा रचित शीलस्थ आपकी चित्रकला के कौशल को प्रकट कर देता है। आपकी सभी कलाओं का एकमात्र लक्ष्य धर्मकला ही था । मात्र ३६ वर्ष के अल्प आयुकाल में आपने जो कीति, धर्मज्ञान एवं योग्य प्राप्त की थी वह सत्र पुण्य का ही परिपाक माना जायेगा। ARE Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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