SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 719
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AAAAmiraramanawwaraamananAACARBAinarssardaroodaiauARNATABASANAamaaranandnsaAAAnnorseen आचार्यप्रकट आचार्यप्रवरआ श्रीआनन्दा ग्रन्थ श्रीआनन्द rammarAWN २०४ इतिहास और संस्कृति पाल के श्रद्धास्पद, वाचक आर्यदत्त के शिष्य वाचक आर्यसिंह की प्रेरणा से एक विशाल जिन प्रतिमा का दान किया था । आचार्य बलदत्त की शिष्या आर्या कुमारमित्रा तपस्विनी को शिलालेखों में संशित, मस्वित, बोधित, कहा गया है । यह भिक्षुणी हो गयी थी। किन्तु उसके पूर्वाश्रम के पुत्र गंधिक कुमार भट्टिय ने एक जिन प्रतिमा का दान किया था। यह मूर्ति कंकाली टीले के पश्चिमी भाग में स्थित दूसरे देव प्रासाद में भग्नावेश के रूप में प्राप्त हुई हैं। पहले देव प्रासाद की स्थिति इस मन्दिर के कुछ पूर्व के ओर थी। ग्रामिक जयनाग की कुटुम्बिनी और ग्रामिक जयदेव की पुत्रबधु ने संवत ४० में शिला स्तम्भ का दान किया था । श्रमण-श्राविका 'वालहस्ति' ने अपने माता-पिता और सास ससुर की पुण्यवृद्धि के लिए एक बड़े तोरण की स्थापना की थी। कंकाली टीलों की खुदाई में ही मिली एक तीर्थकर मूर्ति की भग्न-चौकी भी है, जिस पर ई० दूसरी शताब्दी का एक ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है । इस लेख में लिला है कि शक संवत ७६ (१५० ई०) में भगवान श्री मुनिसुव्रत नाथ की इस प्रतिमा को देवताओं के द्वारा निर्मित वोदू-स्तुप में प्रतिष्ठित कराया गया। "स्तप"-पूर्व-कालीन विद्वानों की धारणा थी कि भारतवर्ष में सब से पहले बौद्ध-स्तुपों का निर्माण हुआ था, किन्तु प्रस्तुत तथ्यों के द्वारा यह धारणा भ्रान्त सिद्ध हो चुकी है और अब विद्वान लोग मानने लगे हैं कि बौद्ध-स्तूपों के निर्माण से पूर्व ही जैन-स्तूपों का निर्माण होता रहा । इसकी पुष्टि साहित्यिक प्रमाणों से भी होती है, जिन्हें वुल्हर और स्मिथ आदि ने (पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। सबसे प्रथम वुल्हर ने 'जिनप्रभ चरित तीर्थ कल्प' नाम के ग्रन्थ की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया, जिसमें प्राचीन प्रमाणों के आधार पर 'मथरा' के देव निर्मित स्तूप की नींव पड़ने तथा उसके जीर्णोद्धार का वर्णन है । इस ग्रन्थ के अनुसार यह स्तूप पहले स्वर्ण का था और उस पर मूल्यवान जवाहिरात जड़े हुए थे। सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा के लिए इस स्तूप का निर्माण 'कुबेरादेवी' ने कराया था। बाद में तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के काल में इसका जीर्णोद्धार ईटों से हुआ, पश्चात् चौबीसवें तीर्थकार श्री 'महावीर' के ज्ञान प्राप्ति के तेरह सौ वर्षों पश्चात् वप्पभट्ट सूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया। सूरि जी का समय ईसा की आठवीं शताब्दी है। उपरोक्त तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि 'मथुरा' के साथ जैन-धर्म का सम्बन्ध सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के काल से ही बराबर बना रहा है और वह जैनों का श्रद्धा स्थल बराबर रहा है। मथुरा से ही प्राप्त दो जैन-स्तूपों में पहला शुंग-काल का है और दूसरा कुषाण-काल का है। सौभाग्यवश कंकाली टीला नामक स्थान से इन दोनों स्तूपों के विषय पर सहस्राधिक शिलावशेष प्राप्त हुए हैं। इन स्तूपों को देव निर्मित माना गया है। अर्थात् यह अति प्राचीन काल का है, और इसका निर्माण देवों द्वारा हुआ है । देव-निर्मित विशेषण सभिप्राय है। जैसा रायपसे नियसूत्त में देवों द्वारा एक विशाल स्तूप के निर्माण का वर्णन है । कुछ इसी प्रकार की कल्पना मथुरा के कंकाली टीले के इन स्तूपों के लिए की जाती है। तिब्बती-विद्वान बौद्ध इतिहासकार 'तारानाथ ने अशोक-कालीन शिल्प निर्माताओं को यक्ष लिखा है । और मौर्य-कालीन शिल्प-कला को 'यक्षकला' की संज्ञा दी है जिससे यह धारणा बनी की उस युग के पूर्व की कला देवनिर्मित मानी जाती थी। उपरोक्त ध्वनि यह स्पष्ट करती है कि-'मथुरा' का देव निर्मित जैन-स्तुप मौर्यकाल से पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy