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________________ aslisa 10 श्रीमती निरूपमादेवी खण्डेलवाल, एम० ए० (हिन्दी साहित्य) लेखिका तथा रेडियो वार्ताकार NA रा जैन-संस्कृति में संगीत का स्थान संगीत शब्द की व्युत्पत्ति 'संगीत' शब्द 'गीत' में 'सम' उपसर्ग लगाकर बना है, जिसका अर्थ होता है गीतसहित । नृत्य और वादन के साथ किया गया गीत संगीत कहलाता है । संगीत के आदिप्रवर्तक तीर्थङ्कर ऋषभदेव जैन संस्कृति और वाङमय में बहुत प्राचीनकाल से ही संगीतकला का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन परम्परा उसे अनादि-निधन मानती है। जैन साहित्य में कर्मयुग के आदि विधाता प्रजापति ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपने पुत्र वृषभसेन को संगीत की शिक्षा दी। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में लिखा है 'विभव षभसेनाय गीतवाद्यार्थ संग्रहम् । गन्धर्वशास्त्रमाचल्यो यत्राध्यायाः परः शतम् ॥' ___'मनुकुलतिलक ऋषमदेव ने अपने पुत्र वृषभसेन को गीत, वाद्य तथा गान्धर्व विद्या का उपदेश दिया, जिस शास्त्र के सौ अध्याय से ऊपर हैं।' ऋषभदेव अलौकिक ज्ञान और बुद्धि के स्वामी थे। उन्हीं से अंक और अक्षर कला प्रकट हुई और उन्होंने प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का उपदेश तथा शिक्षण दिया । संगीतोपनिषद्सारोद्धार में बताया है कि तुर्य, वाद्य और नाटक की उत्पत्ति ऋषभपुत्र चक्रवर्ती भरत की नव-निधियों में से अन्तिम शंख से हुई थी। संगीत की निष्पत्ति हर से हुई और यहाँ हर का आशय ऋषभदेव है । पापों का नाश करने के कारण वे 'हर' कहलाते हैं । शिवपद (मोक्ष) के प्रदाता होने के कारण वे शिव भी कहलाते हैं। संगीत के आचार्य मतंग नामक आचार्य का 'बृहद्देशी' ग्रन्थ प्रथम बार राग का उल्लेख करता है । इनका समय ईसवी की चौथी-पांचवीं शताब्दी है। دفاع دفاع आचावरत आनआचार्यप्रवर आमा श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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