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________________ पुरातत्त्व मीमांसा १७५ •iaCEN समारम्भ में इस विभाग को खूब उन्नत करने का विचार प्रकट किया। इसके पश्चात् १६०१ ई० में इस विभाग के लिए एक लाख रुपया वार्षिक खर्चे की स्वीकृति हुई और डायरेक्टर जनरल की फिर से नियुक्ति की गई। सन् १६०२ ई० में नए डायरेक्टर जनरल मार्शल साहब भारत में आये और तभी से इस विषय का नया इतिहास आरम्भ होता है, जिसके बारे में आज कुछ कहना मेरा विषय नहीं है। जब इस विषय पर अपना कुछ अधिकार होगा तभी इसका विवेचन किया जावेगा। अंग्रेज सरकार का अनुकरण करते हुए कितने ही देशी राज्यों ने भी अपने यहाँ ऐसे विभागों की स्थापना की। भावनगर संस्थान के कितने ही पण्डितों ने काठियावाड़, गुजरात और राजपूताने के अनेक शिलालेखों और दानपत्रों की नकलें प्राप्त करके "भावनगर प्राचीन शोध संग्रह" नामक पुस्तक में प्रकाशित की। काठियावाड़ के भूतपूर्व पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल वाटसन् का प्राचीन वस्तुओं पर बहुत प्रेम था अतः वहाँ के कुछ राजाओं ने मिलकर राजकोट में "वाटसन् म्यूजियम" नामक "पुराण वस्तु संग्रहालय" की स्थापना की जिसमें अनेक शिलालेखों, ताम्रपत्रों, पुस्तकों और सिक्कों आदि का अच्छा संग्रह हुआ है। मैसूर राज्य में भी एक संग्रहालय की स्थापना हुई और साथ ही आकिऑलॉजिकल डिपार्टमेण्ट भी स्वतंत्र रूप से खोला गया है, जिसके द्वारा आज तक अनेक रिपोर्ट, पूस्तकें और लेखसंग्रह आदि छपकर प्रकाश में आए हैं। यहाँ से एथिग्राफिआ कर्नाटिका नाम की एक सिरीज प्रकाशित होती है जिसमें हजारों शिलालेख, ताम्रपत्र इत्यादि निकल चुके हैं। इसी प्रकार त्रावणकोर, हैदराबाद और काश्मीर राज्यों में भी स्वतंत्र रूप से कार्य होता है। इसके अतिरिक्त उदयपुर, झालावाड़, भोपाल, बड़ौदा, जूनागढ़, भावनगर आदि राज्यों में भी स्थानीय संग्रहालय बनते जा रहे हैं। ब्रिटिश राज्य में सरकार और अन्य संस्थाओं तथा व्यक्तियों द्वारा संग्रहित पुरानी वस्तुओं को बम्बई, मद्रास, कलकता, नागपुर, अजमेर, लाहोर, लखनऊ, मथुरा, सारनाथ, पेशावर आदि स्थानों के पदार्थ सग्रहालयों में सुरक्षित रखा जाता है; इन्ही में से बहुत सी वस्तुएँ लन्दन के ब्रिटिश म्यूजियम में भी भेज दी जाती हैं। इन विशिष्ट वस्तुओं का वर्णन विभिन्न संस्थाएँ अपनी-अपनी रिपोर्टों और सूचीपत्रों (कैटेलाग्स्) द्वारा प्रकाशित करती रहती हैं। शिलालेखों, ताम्रपत्रों और सिक्कों आदि विभिन्न विषयों की अलग-अलग विशेष पुस्तकें और ग्रन्थमालाएँ निकलती रहती हैं। जिस प्रकार हिन्दुस्तान में पुरातत्त्व की गवेषणा का कार्य चालू हआ उसी प्रकार यूरोप में भी चला । फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, इटली, रूस आदि राज्यों ने इस विषय के लिए अपने यहाँ स्वतंत्र सोसाइटियां एकेडेमियां आदि स्थापित की और वहां के विद्वानों ने भारतीय साहित्य एवं इतिहास को प्रकाश में लाने के लिए अत्यन्त परिश्रम किया। हमारे नष्टप्रायः हजारों ग्रन्थों का संग्रह करके, उनको पढ़कर तथा प्रकाशित करके उद्धार किया है। संस्कृत और प्राकृत साहित्य को प्रकाश में लाने के लिए जितना काम जर्मन विद्वानों ने किया उतना दूसरों ने नहीं किया। तुलनात्मक भाषाशास्त्र पर जर्मनों ने जितना अधिकार प्राप्त किया है उतना दूसरों ने नहीं। अन्यान्य विषयों पर भी बहत सी विशिष्ट मौलिक शोधे जर्मन विद्वानों के हाथों हुई हैं। अग्रजों का तो भारत के साथ विशेष सम्बन्ध था, बस, इसीलिए उन्होंने थोड़ा बहुत कार्य करने का उपक्रम किया था। अस्तु । AE ALMARAALAALAA % WIMPPeranaam aanwarmiNavnawrtainmewamivorwom Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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