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________________ आचार्य प्रव G 麗 顅 3112 यथा आनन्द अभिने अन् १७० इतिहास और संस्कृति का उद्योग आरम्भ किया। उन्होंने पहले प्रत्येक अक्षर को गुप्तलिपि के अक्षरों के साथ मिलाने और मिलते हुए अक्षरों को वर्णमाला मे शामिल करने का क्रम अपनाया । इस रीति से बहुत से अक्षर उनकी जानकारी में आ गये । Jain Education International पादरी जेम्स स्टीवेन्सन ने भी प्रिंसेप साहब की तरह इसी शोधन में अनुरक्त होकर क' 'ज' 'थ 'प' और 'व' अक्षरों को पहचाना और इन्हीं अक्षरों की सहायता से पूरे लेखों को पढ़कर उनका अनुवाद करने का मनोरथ किया, परन्तु कुछ तो अक्षरों की पहचान में भूल होने के कारण, कुछ वर्णमाला की अपूर्णता के कारण और कुछ इन लेखों की भाषा को संस्कृत समझ लेने के कारण यह उद्योग पूरा पूरा सफल नहीं हुआ। फिर भी, प्रिंसेप को इससे कोई निराशा नहीं हुई । सन् १८३५ ई० में प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ प्रो० लॅस्सन ने ऑस्ट्रिअन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में लिखा हुआ अँ गॅ थॉ किलस का नाम पढ़ा। परन्तु १८३७ ई० के आरम्भ में मि० प्रिंसेप ने अपनी अलौकिक स्फुरणा द्वारा एक छोटा-सा 'दान' शब्द शोध निकाला जिससे इस विषय की बहुत-सी ग्रन्थियाँ एक दम सुलझ गईं। इसका विवरण इस प्रकार है । ई० स० १८३७ में प्रिंसेप ने सांची स्तूप आदि पर खुदे हुए कितने ही छोटे-छोटे लेखों की छापों को एकत्रित करके देखा तो बहुत से लेखों के अन्त में दो अक्षर एक ही सरीखे जान पड़े और उनके पहले 'स' अक्षर दिखाई पड़ा जिसको प्राकृत भाषा की छठी विभक्ति का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य' के बदले) मानकर यह अनुमान किया कि भिन्न-भिन्न लेख भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा किये हुए दानों के सूचक जान पड़ते हैं । फिर उन एक सरीखे दीखने वाले और पहचान में न आने वाले दो अक्षरों में से पहले के साथ ' आ की मात्रा और दूसरे के साथ """. ' - अनुस्वार चिन्ह लगा हुआ होने से उन्होंने निश्चय किया कि यह शब्द 'दान' होना चाहिए । इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' की पहचान होने से आधी वर्णमाला पूरी हो गई और उसके आधार पर दिल्ली, इलाहाबाद, सांची, मेथिया, रधिया, गिरनार, धौरली आदि स्थानों से प्राप्त अशोक के विशिष्ठ लेख सरलता पूर्वक पढ़ लिए गये । इससे यह भी निश्चित हो गया कि इन लेखों की भाषा, जैसा कि अब तक बहुत से लोग मान रहे थे, संस्कृत नहीं है वरन् तत्तत्स्थानों में प्रचलित देशभाषा थी ( जो साधारणतया उस समय प्राकृत नाम से विख्यात थी ) । इस प्रकार ब्राह्मीलिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ और उसके योग से भारत के प्राचीन से प्राचीनतम लेखों को पढ़ने में पूरी सफलता मिली । अब उतनी ही पुरानी दूसरी लिपि की शोध का विवरण दिया जाता है । इस लिपि का ज्ञान भी प्रायः उसी समय में प्राप्त हुआ था। इसका नाम खरोष्ठी लिपि है । खरोष्ठी लिपि आर्यलिपि नहीं है। अर्थात् अनार्य लिपि है, इसको सेमेटिक लिपि के कुटुम्ब की अरमेईक् लिपि से निकली हुई मानी जाती समान है अर्थात् यह दाँयें हाथ से बायीं ओर लिखी शताब्दी में केवल पंजाब के कुछ भागों में ही है । इस लिपि को लिखने की पद्धति फारसी लिपि के जाती है । यह लिपि ईसा में पूर्व तीसरी अथवा चौथी प्रचलित थी । शाहाबाजगढी और मन्सोरा के चट्टानों पर अशोक के लेख इसी इसके अतिरिक्त शक, क्षत्रप, पार्थिअन और कुशानवंशी राजाओं के समय के बाक्ट्रिन, ग्रीक, शक, क्षत्रप, आदि राजवंशों के कितने ही सिक्कों में यही लिपि उत्कीर्ण हुई मिलती है । लिपि में उत्कीर्ण हुए हैं । कितने बौद्ध लेखों तथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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