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________________ .. . .. t AJA. . e .. ........... . ........ w .. . - : LALAnandida सा आचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्दग्रन्थ १६८ इतिहास और संस्कृति इस प्रकार केप्टन ट्रायर, डॉ० मिले और जेम्स प्रिंसेप के सतत परिश्रम से चार्ल्स विल्किन्स् द्वारा तैयार की हुई गुप्तलिपि की अपूर्ण वर्णमाला पूरी हो गई और गुप्तवंशी राजाओं के समय तक के शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा सिक्कों आदि को पढ़ने में पूरी-पूरी सफलता और सरलता प्राप्त हो गई। अब, बहत सी लिपियों की आदि जननी ब्राह्मी लिपि को बारी आई। गुप्तलिपि से भी अधिक प्राचीन होने के कारण इस लिपि को एक दम समझ लेना कठिन था। इस लिपि के दर्शन तो शोधकर्ताओं को १७९५ ई० में ही हो गए थे। उसी वर्ष सर चार्ल्स मैलेट ने इलोरा की गुफाओं के कितने ब्राह्मी लेखों की नकलें सर विलियम जेम्स के पास भेजीं। उन्होंने इन नकलों को मेजर विल्फोर्ड के पास, जो उस समय काशी में थे, इसलिए भेजी कि वे इनको अपनी तरफ से किसी पण्डित द्वारा पढ़वावें। पहले तो उनको पढ़ने वाला कोई पण्डित मिला नहीं, परन्तु फिर एक चालाक ब्राह्मण ने कितनी ही प्राचीन लिपियों की एक कृत्रिम पुस्तक बेचारे जिज्ञासु मेजर साहब को दिखलाई और उन्हीं के आधार पर उन लेखों को गलत-सलत पढ़कर खूब दक्षिणा प्राप्त की। विल्फोर्ड साहब ने उस ब्राह्मण द्वारा कल्पित रीति से पढ़े हए उन लेखों पर पूर्ण विश्वास किया और उसके समझाने के अनुसार ही उनका अंग्रेजी भाषान्तर करके सर जेम्स के पास भेज दिया। इस सम्बन्ध में मेजर विल्फोर्ड ने सर जेम्स को जो पत्र भेजा उसमें बहुत उत्साह पूर्वक लिखा है कि "इस पत्र के साथ कुछ लेखों की नकलें उनके सारांश सहित भेज रहा है। पहले तो मैंने इन लेखों के पढ़े जाने की आशा बिलकुल ही छोड़ दी, क्योंकि हिन्दुस्तान के इस भाग में (बनारस की तरफ) पुराने लेख नहीं मिलते हैं, इसलिए उनके पढ़ने की कला में बुद्धि .. का प्रयोग करने अथवा उनकी शोध-खोज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह सब कुछ होते हुए भी और मेरे बहुत से प्रयत्न निष्फल चले जाने पर भी अन्त में सौभाग्य से मुझे एक वृद्ध गरु मिल गया जिसने इन लेखों को पढ़ने की कुन्जी बताई और प्राचीनकाल में भारत के विभिन्न भागों में जो लिपियाँ प्रचलित थीं, उनके विषय में एक संस्कृत पुस्तक मेरे पास लाया । निस्सन्देह, यह एक सौभाग्य सूचक शोध हुई है जो हमारे लिए भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।" मेजर विल्फोर्ड की इस 'शोध' के विषय में बहुत वर्षों तक किसी को कोई सन्देह नहीं हुआ. क्योंकि सन् १८२० ई० में खण्डगिरि के द्वार पर इसी लिपि में लिखे हुए लेख के सम्बन्ध में मि० स्टलिङ्ग ने लिखा है कि, 'मेजर विल्फोर्ड ने प्राचीन लेखों को पढ़ने की कुन्जी एक विद्वान ब्राह्मण से प्राप्त की और उनकी विद्वत्ता एवं बुद्धि से इलोरा व शालसेट के इसी लिपि में लिखे हुए लेखों के कुछ भाग पढ़े गए। इसके पश्चात् दिल्ली तथा अन्य स्थानों के ऐसे ही लेखों को पढ़ने में उस कुन्जी का कोई उपयोग नहीं हुआ। यह शोचनीय है।" सन् १८३३ ई० में मि० प्रिन्सेप ने सही कुन्जी निकाली। इससे लगभग एक वर्ष पूर्व उन्होंने मेजर विल्फोर्ड की कुन्जी का उपयोग न करने की बाबत दुःख प्रकट किया। एक शोधकर्ता जिज्ञासु विद्वान् को ऐसी बात पर दुःख होना स्वाभाविक भी है । परन्तु, उस विद्वान ब्राह्मण की बताई हुई कुन्जी का अधिक उपयोग नहीं हुआ, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार शोध-खोज के दूसरे कामों में मेजर विल्फोर्ड की श्रद्धा का श्राद्ध करने वाले चालाक ब्राह्मण के धोखे में वे आ गए, इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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