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________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६१ सका है उतना हमारे इस विश्ववृद्ध आर्यावर्त का इतिहास प्राप्त नहीं हो सका है। प्राचीन और विस्तृत इतिहास तो दूर रहा, हम लोगों में तो हम से तीन पीढ़ी पूर्व का इतिहास ही दुर्लभ्य है। वर्तमान शताब्दी से पहले की शताब्दी का ही पूर्ण वृत्तान्त हम नहीं जानते । और तो क्या, जिन राष्ट्रीय शका:द और सम्वत् का प्रयोग हमारे पूर्वज अनेकों शताब्दियों से करते आये हैं और जिन पर हमारी सम्पूर्ण मध्यकालीन कालगणना अवलम्बित है, उनके प्रवर्तक कौन थे यह भी आज तक अज्ञात एवं अनिश्चित है। ऐसी स्थिति में पुरातत्त्व संशोधन ही हमारे इतिहास निर्माण का मुख्य स्तम्भ है। हमारा इतिहास जूनी पूरानी वस्तुओं की शोध खोज के परिणाम के आधार पर रचा गया है और रचा जायगा। यों तो संसार के किसी भी प्राचीन प्रदेश की पुरातन परिस्थितियों को जानने के लिए, जब इतिहास रूपी दूरदर्शक यन्त्र उनके दर्शन में सफल नहीं होता है तो, वहाँ की जूनी पुरानी वस्तुएँ ही आधारभूत होती हैं; परन्तु भारतवर्ष में तो हमारे जन्मदिवस से लेकर ठेठ युग के आरम्भ तक की परिस्थितियों को जानने के लिए जूनीपुरानी वस्तुओं पर अवलम्बित रहना पड़ता है। कारण कि शास्त्रीय पद्धति से जिसको हम इतिहास कहते हैं वैसा तो कोई छोटा-मोटा भी इतिहास भारतवासियों ने लिखा नहीं, अथवा वह कहीं उपलब्ध नहीं होता । इतिहास-निर्माण में काम आने वाली जूनी पुरानी वस्तुओं में प्राचीन ग्रन्थ, शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के तथा धातु पात्र, मन्दिर, मस्जिदें, जलाशय, कीर्ति स्तम्भ, तथा अन्य इमारतें व खण्डहर आदि गिने जाते हैं। हमारे पूर्वजों ने इतिहास के स्वतन्त्र ग्रन्थों का तो निर्माण नहीं किया परन्तु इतिहास के साधन तो बहुत से निर्मित किये हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। परन्त, हम तो इतना भी नहीं जानते, न जानने की आवश्यकता ही समझते कि इन साधनों की किस प्रकार छानबीन करके इतिहास का निर्माण करें । यह पाठ हमको पाश्चात्यों ने सिखाया है। पाठ ही सिखाया हो-इतना ही नहीं, वरन् अनेक प्रकार के कष्टों को झेलकर और परिश्रम करके उन्होंने हमारे लिए इतिहास के अनेक अध्याय भी तैयार किये हैं। यह आनुषङ्गिक बात लिखकर अब मैं अपने निबन्ध के मुख्य प्रतिपाद्य विषय पर आता हूँ। प्रारम्भ में कहा जा चुका है कि मनुष्य विशिष्ट बुद्धिशाली ज्ञानवान प्राणी है इसलिए उसमें प्रत्येक वस्तु को विशेष रूप से जानने की जिज्ञासा का रहना स्वाभाविक ही है । इनमें से जो मनुष्य अन्य साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक ज्ञानवान होते हैं, उनमें यह जिज्ञासा अधिक उत्कट मात्रा में होती है। ऐसे मनुष्यों का जब कभी नवीन समागम किसी अपरिचित प्रदेश अथवा मानव समाज से होता है तो उनमें वहाँ के धर्म, समाज, इतिहास आदि के विषय में जानने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है । इसी ज्ञानपिपासा से प्रेरित होकर वे मनुष्य उन बातों की शोध-खोज में पड़ते हैं। वे उस अपरिचित प्रदेश की भाषा सीखते हैं, उसके ज्ञान भण्डार को खोजने का प्रयत्न करते हैं और फिर उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान का अपने देश बन्धुओं को लाभ प्राप्त कराने के लिए उस ज्ञान भण्डार को अपनी भाषा में अवतरित करने का उपक्रम करते हैं। भारतवर्ष में पैसा कमाकर पेट पूजा के निमित आये हुए अंग्रेज इसी प्रकार हमारे देश की शोध-खोज करने में प्रवृत्त हुए । ईसवीय सन १७५७ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्लासी की प्रसिद्ध लड़ाई के बाद, धीरे-धीरे बंगाल पर अधिकार प्राप्त करना आरम्भ कर दिया था। १७६५ ई० में अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी हस्तगत कर ली ; १७७२ ई० में बंगाल के नवाब से बहुत से अधिकार प्राप्त कर A AAAAAAAAAAAAAAAAjnaariniwamiAAAAARAKrsnabranRJARJAAAAA animirmiranmassamAIABAJALGAN आप्रवास POE-NE साचा प्रवास अभिक आनन्दन श्रीआनन्दग्रन्थ manawwamiAyanamamwamMMAamannaristamineeri Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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