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________________ आचार्य प्रवर श्री So TALASEY श्र इतिहास और संस्कृति (२) वे अत्यधिक प्रभावशाली व शक्तिसम्पन्न शासक हैं । उन्हें अर्धचक्रवर्ती अथथा त्रिखण्डाधिपति भी कहा गया है । जैन - भूगोल के अनुसार सम्पूर्ण देश को ६ खण्डों में विभाजित किया गया है। इनमें तीन खण्ड उत्तर भारत के तथा तीन खण्ड विन्ध्याचल (विजयार्द्ध पर्वत ) से नीचे के अर्थात् दक्षिण भारत के । श्रीकृष्ण का द्वारका सहित सम्पूर्ण दक्षिण क्षेत्र में प्रभाव था, अतः उन्हें अर्द्धचक्रवर्ती कहा गया है । १५६ श्री आनन्दन ग्रन्थ: 31 (३) अर्द्धचक्रवर्ती शासक होने के कारण वे शक्ति, धनुष, गदा, चक्र, कृपाण, शंख और दण्ड आदि सात रत्नों के धारक थे।" (४) उनके कार्यों से अधर्म, अनाचार व अशान्ति का नाश होता है । वे देश में धर्म तथा न्याय की स्थापना करते हैं । (५) वे अपने समान बली, शक्तिशाली व प्रभुत्व सम्पन्न शत्रु-राजा, जिसे कि जैन परम्परा में प्रतिवासुदेव ( प्रतिनारायण ) कहा है; जो कि बुरी शक्तियों - अधर्म, अनाचार, अन्याय आदि को प्रश्रय देते हैं, हनन करते हैं । इस दृष्टि से श्रीकृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी जरासन्ध था। उसके हनन से लोक में सर्वत्र प्रसन्नता छा जाती है और स्वयं देवगण उनका वासुदेव रूप में अभिनन्दन करते हैं तथा उन पर पुष्पवृष्टि करते हैं । (६) वे अत्यधिक धार्मिक वृत्ति के हैं । धर्म प्रभावना में उनका पूर्ण योगदान रहता है । साथ ही राज्य, वैभव तथा प्रभुता के प्रति उनका मोह का भाव भी है, इसलिए तपस्या अथवा वैराग्य के महान पथ के वे साधक नहीं बन पाते हैं । उक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में वासुदेव (नारायण) से तात्पर्य महान् पराक्रमी व अत्यधिक शक्तिसम्पन्न अर्ध चक्रवर्ती शासक से है, जो कि अपने असाधारण बल, पराक्रम व शक्ति के द्वारा अनाचारी और अत्याचारियों का उन्मूलन करके, पीड़ितों व दीन-दुखियों का उद्धार करते हैं और इस प्रकार धर्म की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनका आदर्श मुख्यतः लोकरक्षा का है । अतः समाज में उनके वीर स्वरूप की पूजा होती है ! स्पष्ट ही 'वासुदेव' शब्द का यह प्रयोग महाभारत में प्रयुक्त देवाधिदेव भगवान के पर्यायवाची शब्द 'वासुदेव' से पूर्णतः भिन्न है । 'वासुदेव' शब्द की इस अर्थ में प्रयुक्ति से ऐसी सम्भावना भी प्रकट होती है कि तत्कालीन भारत में वासुदेव एक विरुद था, जिसे अत्यधिक पराक्रमी व शक्तिशाली शासक ग्रहण किया करते थे । श्रीकृष्ण Jain Education International (४) गंगा सिंधुर्णइति वेयड ढगेण भरहखेत्तम्मि । छक्खंड संजादं ताण विभागं परुवेमो । उत्तर दक्खिण भरहे खंडाणि तिणि होति पतेवक्कं । दक्खिण तिय खंडेसु अजाखंडोत्ति मज्झिओ ॥ -तिलोयपण्णत्ति ४।२६६-६७ (५) मत्ती कोदंड गदा चक्कक्विणाणि संख दंडाणि । इय सत्त महारयणा सोहते अद्धचक्कीणं ॥ - वही ४।१४३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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