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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४७ ല अथवा श्रमणों को दान देने में जहाँ परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों की अनुमति हो—सभी भिक्षा देने के अधिकारी हों, जो संघ द्वारा बहुमत हो-सेवाशीलता, शालीनता तथा धर्म-भावना की वृत्ति के कारण जिस कुल का संघ में बहुमान हो।' पारंपरिक संस्कारों का मनुष्य-जीवन पर बहुत प्रभाव होता है। पारिवारिक और पैतृक संस्कार मानव के हृदय में कुछ ऐसी धारणाएँ और मान्यताएँ प्रतिष्ठित कर देते हैं कि वह सहसा हीनपथ का अवलम्बन नहीं कर पाता। उसमें सहज ही धीरज, दृढ़ता, स्थिरता और उदात्तता आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जिनके कारण संघ का गुरुतर उत्तरदायित्व वह वहन कर सकता है। अपनी पैतृक प्रतिष्ठा, सम्मान और गरिमा भी उसके मस्तिष्क में रहती है, जो उसे किसी भी महान कार्य में साहस और निर्भीक भाव से जुट जाने को प्रेरित करती है। यही कारण है, यहाँ कुल की महत्ता पर इतना जोर दिया गया है। उक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कुल के जो विशेषण ऊपर दिये गये हैं, उनका सीधा सम्बन्ध श्रमण संघ से है। जिस कुल से श्रमण संघ का इतना नैकट्य है, जिसके बच्चे-बच्चे के हृदय में श्रमणों के प्रति अगाध श्रद्धा है, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रमणों को भक्ति और आदर के साथ सदा दान देने को तत्परता रहता है, वहाँ एक दो का अपवाद हो सकता है, पर उसमें उत्पन्न व्यक्ति सहज ही संघीय दायित्वों के प्रति बहुत जागरूक होगा । परम्परा और संस्कार के कारण उसे लगभग वह सब प्राप्त होता है, जो काफी समय पूर्व दीक्षित साधु को होता है । ऐसे निरुद्ध-वास-पर्याय-श्रमण में वह शासकीय अभिज्ञता तो अपेक्षित है ही, जो आचार्य-पद के लिए वाञ्छनीय है। यह विशेष परिस्थिति भी, कभी-कभी तब बनती है जब अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का अवसर पाये बिना ही आचार्य अचानक काल-धर्म को प्राप्त हो जाते हैं । समग्र संघ के पुराने श्रमणसदस्यों में कोई ऐसा व्यक्ति न दीख पड़े, जो आचार्य या उपाध्याय के उत्तरदायित्व को सम्हालने में सक्षम लगे, तब संयोगवश कोई ऐसा व्यक्ति दृष्टि में आए, जो परम योग्य प्रतीत होता हो, पर जिसका दीक्षा-पर्याय केवल एक ही दिन का हो तो उसे पदासीन किया जा सकता है। सामान्यतया ऐसा होता नहीं, पर विशेष स्थिति में ऐसा संयोग बन जाए तो वहाँ करणीयता का जो आधार होना चाहिए, उसे उपर्युक्त रूप में संकेतित किया है। व्यवहार-सूत्र में एक और ऐसी ही विशेष परिस्थिति के सन्दर्भ में कहा गया है, यदि अचानक आचार्य काल-धर्म को प्राप्त कर जाएं और तब तक उत्तरवर्ती आचार्य या उपाध्याय का मनोनयन न किया जा सका हो और संयोगवश सामने एक ऐसा (निरुद्ध-वास-पर्याय) श्रमण हो, जो यद्यपि सभी अपेक्षाओं से आचार्यत्व के अनुरूप हो पर जिसकी दीक्षा पर्याय केवल एक दिवसीय हो, जो बहुश्रुत न हो, परन्तु जो समुच्चय रूप में आचारांग तथा निशीथ का कुछ ही भाग पढ़ा हो, परन्तु अवशिष्ट भाग पढ़ १. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र ६ । ARM A nsadhanAGARMADARAMBAwariAGARicordarAJIJABRJAAAAAAAAAAJAINAASAIRAMSARNAM Amwani भागार प्रवास अभियापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द आभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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