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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४५ कमाण LUN पयर उपर्युक्त उद्धरणों में जो दीक्षा-काल दिया गया है, वह न्यूनतम है। उससे कम समय का दीक्षित श्रमण साधारणत: ऊपर वणित पदों का अधिकारी नहीं होता। पद और दीक्षा-काल आठ वर्ष, पांच वर्ष और तीन वर्ष के दीक्षा-काल के रूप में ऊपर तीन प्रकार के विकल्प उपस्थित किये गये हैं। अन्य योग्यताएँ सबकी एक जैसी बतलाई गई हैं। आठ वर्ष के दीक्षित श्रमण को आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक का पद दिया जाना कल्पनीय-विहित कहा गया है। सात पदों में से छः पदों का उल्लेख यहाँ हुआ है। गणधर का पद उल्लिखित नहीं है। पर, भावत: उसे यहाँ अन्तर्गभित मान लिया जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस श्रमण का दीक्षा-पर्याय आठ वर्ष का हो चुका है और जिसमें यदि दूसरी अपेक्षित योग्यताएँ हों तो वह सभी पदों का अधिकारी है। पाँच वर्ष के दीक्षित श्रमण को, यदि अन्य योग्यताएँ उसमें हों तो आचार्य और उपाध्याय पद का अधिकारी बताया है। तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण को और योग्यताएँ होने पर उपाध्याय पद के लिए अनुमोदित किया है। इन तीन विकल्पों में से दो में आचार्य का उल्लेख हआ है और उपाध्याय का तीनों में ही। इसका आशय यह है कि आचार्य के लिए कम से कम पाँच वर्ष का दीक्षा-काल होना आवश्यक है । तब यदि उनका आठ वर्ष का दीक्षा-काल हो तो और भी अच्छा। आठ वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता वस्तुतः प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक के पद के लिए है । पहले विकल्प में क्रमशः सभी पदों का उल्लेख करना था अतः आचार्य का भी समावेश कर दिया गया। उपाध्याय-पद के लिए कम से कम तीन वर्ष का दीक्षा-काल अनिवार्य है । फिर वह यदि पांच या आठ वर्ष का हो तो और उत्तम है। जैसा कि कहा गया है, आठ वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता आचार्य तथा उपाध्याय के अतिरिक्त अन्य पदों के लिए तथा पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता केवल आचार्य पद के लिए है। पहले विकल्प में सभी पदों का और दूसरे विकल्प में दो पदों का उल्लेख करना था अत: दोनों स्थानों पर उपाध्याय का समावेश किया गया। श्रुत-योग्यता, आचार-प्रवणता, ओजस्वी व्यक्तित्व तथा जीवन के अनुभव-ये चार महत्वपूर्ण तथ्य हैं, जिनका संघीय पदों से अन्तरंग सम्बन्ध है। उपाध्याय का पद श्रुत-प्रधान या सूत्र-प्रधान है। आत्म-साधना तो जीवन का अविच्छिन्न अंग है ही, उसके अतिरिक्त उपाध्याय का प्रमुख कार्य श्रमणों को सूत्र-वाचना देना है। यदि कोई श्रमण इस (श्रुतात्मक) विषय में निष्णात हों तो अपने उत्तरदायित्व का भली-भाँति निर्वाह करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं आती। व्यावहारिक जीवन के अनुभव आदि की वहाँ विशेष अपेक्षा नहीं रहती। वहाँ P aausamanarasanaadARDAcadalaaormaBBAGLADramanAmours مي عمر مر مر العمراویان هما حزمرد مرده هر کی به من م عهد आधारित समाचाफ्रतारनाम श्रीआनन्द अन्धाअन्धाअन्धन mmmmWAMIAMVwoMOKavy.AMMA merivinlaMareAMANY Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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