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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३१ --+ THEIR (ग विदित्वोद्देशिता-पहले उल्लेख किया गया है कि आचार्य अन्तेवासियों को श्रुत की अर्थ-वाचना देते हैं । वाचना-सम्पदा में इसी सन्दर्भ में कतिपय महत्वपूर्ण विशेषताएँ बतलाई गई हैं। उनमें पहली विदित्वा शिता है । इसका सम्बन्ध अध्येता या वाचना लेने वाले अन्तेवासी से है । अध्येता का विकास किस कोटि का है, उसकी ग्राहक शक्ति कैसी है, किस आगम में उसका प्रवेश सम्यक् है, इत्यादि पहलुओं को दृष्टि में रखकर आचार्य अन्तेवासी को पढ़ाने का निश्चय करते हैं । इसका आशय यह है कि अध्येता की क्षमता को आँकने की आचार्य में विशेष सूझबूझ होती है। विदित्वा वाचिता-उक्त रूप में अन्तेवासी की योग्यता तथा धारणा शक्ति को आँक कर उसे प्रमाण, नय, हेतु, दृष्टान्त तथा युक्तिपूर्वक अर्थ-वाचना देना विदित्वा वाचिता है। परिनिर्वाप्य वाचिता-अन्तेवासी अध्यापित विषयों को असन्दिग्ध रूप से हृदयंगम कर सका है, उसकी स्मति में वे स्थिर हो चुके हैं, यह जानकर उसे वाचना देना परिनिर्वाप्य वाचिता है। अध्यापयिता को ऐसा करना आवश्यक है क्योंकि यदि पूर्व अध्यापित विषय अध्येता को यथावत् रूप में तैयार नहीं हो सके हों और उस ओर ध्यान दिये बिना आगे से आगे पढ़ाते जाना अध्येता के लिए लाभजनक नहीं होता है। यों अध्यापयिता को वृथा श्रम होता है। उसका अभीप्सित फल नहीं होता। अर्थनिर्यापकता-सूत्र-अध्यापयिता के लिए आवश्यक है कि सूत्र-निरूपित जीव, अजीव, आस्रव, सम्वर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष, प्रभति विषयों का उसे पूर्वापर-संगति सहित असन्दिग्ध-निर्णायक बोध हो । उत्सर्ग, अपवाद आदि का रहस्य उसे सम्यक् परिज्ञात हो अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से ये समस्त विषय उस द्वारा आत्मसात् किये हुए हों । यह विषय का निर्यापन है। आचार्य में ऐसा अध्ययन-अनुशीलन होना अपेक्षित है। अपने इस प्रकार के अध्ययन-क्रम द्वारा अन्तेवासियों को अर्थ का अवबोध कराना अर्थनिर्यापकता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ किसी कारणवश उपाध्याय के पद की व्यवस्था नहीं होती या सूत्र-वाचना का कार्य नहीं चलता, वहाँ आचार्य सूत्र-वाचना भी देते हैं । वे सूत्र और अर्थ दोनों की वाचना देने के कारण दोनों पदों का उत्तरदायित्व वहन करते हैं। भगवती वृत्ति तथा व्यवहार भाष्य आदि में ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं। इतना ही नहीं, आवश्यक होने पर आचार्य अन्य पदों का भार भी स्वयं ले सकते हैं । वस्तुतः वे सर्वाधिकारी होते हैं। मति-सम्पदा मन का पदार्थ विषयक निर्णायक व्यापार मति है। मति-सम्पदा का अर्थ बुद्धि-वैशिष्ट्य है। (VAR 2-2/ १ आचार्येण सहोपाध्याय-आचार्योपाध्यायः, सविसयंसि त्ति स्वविषयेऽर्थदान-सूत्रदानलक्षणे गणं त्ति शिष्यवर्गम्, अगिलाए त्ति अखेदेन संगृह्णन्-स्वीकुर्वन्-उपसृम्भयन् -भगवती शतक ५, उद्देशक ६, प्रश्न ११ (वृत्ति) POmanitaramaniaNAMDARASADNAMBAnacotcamBAADAMsamiAAAAAAaranandsamanari AGRAAJAAAAAAAJTA आचार्यप्रवआभापार्यप्रवटभि श्राआनन्दगन्थश्राआनन्दा अन्य womenmovi M witwarivanmove Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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