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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२६ IU विचित्र-श्रुतता-आचार्य बहुश्रुत के साथ विचित्रश्रुत भी होते हैं। उन द्वारा अधिकृत श्रुत अनेक विचित्रताएँ या विभिन्नताएँ लिए होता है । आचार्य को जीव, मोक्ष आदि विषयों का निरूपण करने वाले विविध आगमों का अन्तःस्पर्शी ज्ञान होता है । वे उत्सर्ग, अपवाद आदि विभिन्न पक्षों को विशद रूप से जानते हैं । जिस प्रकार अपने सिद्धान्तों का अंग-प्रत्यंग उन्हें अधिगत होता है, उसी प्रकार अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का भी उन्हें तलस्पर्शी बोध होता है। परिचित-श्रुतता-आचार्य आगमों के रहस्य विद्-मर्मज्ञ होते हैं । वे सूत्र और अर्थ दोनों को भलीभांति आत्मसात् किये हुए होते हैं। उनमें क्रम से--आदि से अन्त तक और उत्क्रम से-अन्त से आदि तक धारा-प्रवाह रूप में सूत्र-वाचन की क्षमता होती है । संक्षेप में आशय यह है कि आगमों का उन्हें चिर-परिचय, सूक्ष्म-परिचय और सम्यक्-परिचय होता है। घोषविशुद्धिकारकता-घोष का अर्थ शब्द या ध्वनि है । आचार्य का शास्त्रोच्चारण अत्यन्त शुद्ध होता है। उदात्त, अनुदात्त, हस्व, दीर्घ प्रमुख उच्चारण-सन्दर्भ सभी दृष्टियों से उनकी ध्वनि अत्यन्त निर्दोष होती है । इस विशेषता का एक आशय और है-अपने आप में अलंकृत, सत्य, प्रिय, हित, परिमित तथा प्रसंगानुरूप होना शब्द की सुषमा है । अलंकृतता, असत्यता, अप्रियता, अहितता, अपरिमितता तथा अप्रासंगिकता शब्द के दोष हैं। इनके वर्जन से घोष या शब्द विशुद्ध कहा जाता है। आचार्य की यह सहज विशेषता होती है। वे सुन्दर, सत्य, प्रिय, हित, परिमित और प्रसंगानुरूप शब्द बोलते हैं। श्रुत सम्पदा के अन्तर्गत यह उनका शब्दसौष्ठव है। शरीर-सम्पदा शरीर-सम्पदा या शारीरिक सुष्ठता भी चार' प्रकार की मानी गई है(१) आरोह-परिणाह-सम्पन्नता (२) अनवत्राप्यशरीरता (३) स्थिरसंहननता (४) बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता (१) आरोह-परिणाह-सम्पन्नता–देह की समुचित लम्बाई और चौड़ाई को आरोह-परिणाह कहा जाता है। अपने पुण्योदय के कारण आचार्य के देह की यह विशेषता होती है। (२) अनवत्राप्यशरीरता-अवत्राप्य का अर्थ लज्जायोग्य है । जो शरीर कुरूप, अंगहीन, घणोत्पादक तथा उपहासजनक होता है, वह अवत्राप्यशरीर कहलाता है, जो हीन व्यक्तित्व का द्योतक है। आचार्य का शरीर इस प्रकार का नहीं होना चाहिए । वह सुरूप, सांगोपांग, सुन्दर तथा आकर्षक होना चाहिए। (३) स्थिरसंहननता--आचार्य का दैहिक संहनन --शारीरिक गठन सुदृढ़ होना चाहिए। आचार्य पर जो संघ का बहत बड़ा उत्तरदायित्व होता है, उसके निर्वाह के लिए उनके सुदृढ़, स्थिर और सशक्त देह का होना भी आवश्यक है । ताकि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में अनाकुल भाव से वर्तन किया जा सके। (४) बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता-नेत्र, श्रोत्र, घ्राण आदि इन्द्रियों का सर्वथा निर्दोष, अपने अपने विषयों १ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ४ SARAIJARAadiamadnamasuaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaadMAJASGAasanaMIAAAAAGRAM आप्रवर अभिसापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य Amarwa Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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